पद
(1)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तै, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूंद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोस्यौ, दृष्टि न रूप परागी।
'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।
Answers
गोपियां उद्धव की प्रेमहीनता पर व्यंग्य करती हुई। कहती है कि है उद्धवा तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो क्योंकि तुम प्रेम के बंधन से पूरी तरह मुक्त हो, अनासक्त हो और तुम्हारा मन किसी के प्रेम में डूबता नहीं तुम श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी उन के प्रेम बंधन से उसी तरह मुक्त हो जैसे कमल का पता सदा पानी में रहता है पर फिर भी उस पर जल का एक दाग भी नहीं लग पाता; उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती तेल की मटकी को जल में डुबोने से उस पर जल की एक बूंद भी नहीं। ठहरती। इसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण के निकट रहते हुए भी उन से प्रेम नहीं करते और उन के प्रभाव से सदा मुक्त बने रहते हो। तुम ने आज तक कभी भी प्रेम रूपी नदी में अपना पैर नहीं डुबोया और तुम्हारी दृष्टि किसी के रूप को देख कर भी उस में उलझी नहीं पर हम तो भोली-भाली अबलाएं हैं जो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की रूप- माधुरी के प्रेम में उसी प्रकार उलझ गई हैं जैसे चींटी गुड पर आसक्त हो उस पर चिपट जाती है और फिर कभी छूट नहीं पाती, वह वहीं प्राण त्याग देती है।