Hindi, asked by rishika004275, 7 months ago

'पद
राजकुमार
बचपन के दिनों में योण सेक्या
कहा करते थे।​

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Answered by Anonymous
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हिंदी बालसाहित्य के लिए गर्व का विषय हो सकता है कि स्वयं को बालसाहित्यकार न मानने वाले लेखक भी इसमें दखल देते रहे हैं. नया उदाहरण ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’ का है. जिनके दो बालकविता संग्रह मेरे सामने हैं. परागजी के अनुसार उन्होंने लगभग 100 बालकविताएं लिखी हैं. उनमें से चुनी हुई 37 रचनाएं दो संग्रहों—‘बड़ा दादा छोटा दादा’ (16 कविताएं) तथा ‘मनपाखी’(21 कविताएं) में संग्रहित हैं. इस आधार पर हम इन्हें उनकी चुनी हुई बालकविताओं का संकलन भी मान सकते हैं. परागजी मूलतः गीतकार, छांदस कविता के मुखर समर्थक हैं. यह समर्थन कहीं–कहीं तो पूर्वाग्रह की सीमा तक पहुंच जाता है. कविताओं में वे ओज, विश्वास, मानवीय गरिमा और उदात्त भावनाओं के संप्रेषण के लिए जाने जाते हैं. इन संग्रहों की कविताएं कवि के छंदानुराग, परंपरानुराग, हास्यबोध, कविता में कहानी कहने की कला, सहजता तथा मनोरंजन प्रधानता पर गहरी पकड़ से परचाती हैं. साररूप में यही इनकी विशेषता है.

बालसाहित्य के बारे में पराग जी ने स्वयं लिखा है कि वे किसी आत्म–स्फूर्त चेतना के कारण बालकविता के क्षेत्र में नहीं आए. ‘मन पाखी’ की भूमिका में यह स्पष्टोक्ति महत्त्वपूर्ण है—‘‘मेरी सात वर्षीय पौत्री अनुभूति ने मुझ पर प्रश्न दागा, ‘बाबा आप बच्चों के लिए कविता क्यों नहीं लिखते?’ यह प्रश्न मेरी अनबूझी अकुलाहट का समाधान दे गया.’’ और इस तरह कविमन की बेचैनी ने उनके लिए बालकविता के द्वार खोल दिए. ऐसे बहुत–से लेखक हैं जो अपने बालपरिजनों के स्नेहस्वरूप बालसाहित्य की मर्यादा में आए. कहते हैं कि बुढ़ापे में व्यक्ति बचपन के करीब चला जाता है. आंगन में नवछौनों को खेलते, मचलते, धमा–चैकड़ी मचाते तथा नई–नई शरारतें करते देख उन्हें अपना बचपन याद आने लगता है. ऐसे बहुत से कवि हुए हैं जो कतिपय देर से बालसाहित्य के क्षेत्र में आए, मगर जब आए तो बचपन को जीने वाली दमदार कविताएं उन्होंने लिखीं, जिनमें बालसुलभ शरारतें, मासूमियत, नटखटपन साकार हो उठते हैं. बच्चों के लिए चुलबुली, दमदार और जीवन के करीब से गुजरती हुई कविताएं लिखने वाले कवि कन्हैयालाल मत्त के बारे में पढ़ा है कि बालकविताएं यूं तो उन्होंने आरंभ से ही लिखी थीं, बीच में कुछ व्यवधान आया—परंतु सेवानिवृत्ति के उपरांत पोते–पोतियों से भरे परिवार तो वे जैसे ‘बरसने लगी’ थीं. परागजी के अनुसार वे ‘अनबूझी अकुलाहट’ के कारण बालसाहित्य लेखन में आए, परंतु मन न रमने के कारण जल्दी ही वापस लौट गए. आखिर क्यों? साहित्य की किसी विधा में आना, मन न रमना, एक सामान्य–सी बात है. इसका तब होता है जब हम अपने लेखकीय विवेक एवं संवेदनाओं का उस विधा–विशेष के अनुशासन से एका नहीं कर पाते. परागजी के मामले में बालसाहित्य के सजृन द्वारा उन्हें उस लेखकीय आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकी, जिसे वे गीत–रचना में प्राप्त करते रहे हैं. तो लेखकीय आनंद क्या विधाओं पर निर्भर रहता है? या लेखकमन की रचना उसे विधा–विशेष की सर्जना के उपयुक्त बनाती है? आखिर क्या कारण है जो विधा एक लेखक को सृजन का आनंद देने में सक्षम है, दूसरा उससे ऊबकर वापस लौट जाता है? लेखन असल में कायाकल्पन की कला है. प्रामाणिक अभिव्यक्ति के लिए लेखक को न केवल प्रामाणिक अनुभव की दरकार होती है, बल्कि उसे अपने चरित्रों के मनोविज्ञान को भी समझना होता है.

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