PATRA PARICHAY OF DRAUPADI IN MAHABHARAT
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Patel persuaded almost every princely state to accede to India. His commitment to national integration in the newly independent country was total and uncompromising, earning him the sobriquet "Iron Man of India". ... He is also called the "Unifier of India".
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द्रौपदी का जन्म
प्राचीन भारत के महाकाव्य महाभारत के अनुसार द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। द्रौपदी पूर्वजन्म में मुद्गल ऋषि की पत्नी थी उनका नाम मुद्गलनी / इंद्रसेना था। उनके पति की अल्पायु में मृत्युंजय उपरांत उसने पति पाने की कामना से तपस्या की। शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने शंकर से पांच बार कहा कि वह सर्वगुणसंपन्न पति चाहती है। शंकर ने कहा कि उसे 5 गुणों से भरा पति मिलेगा। क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी।।[1]
जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देनी चाही। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हुआ और उन्होंने राजकुमारों से कहा, "राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पांचाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी।" गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पांचाल देश की ओर चले।
पांचाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा, "गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे।" गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पांचाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा किन्तु अन्त में कौरव परास्त हो कर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पांचाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।[2]
द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?" द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमायाचना करते हुये बोले, "हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।" द्रोणाचार्य ने कहा, "तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।" इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया।[3]
गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम द्रौपदी रखा गया।
द्रौपदी के स्वयवर की शर्त बहुत कठोर थी जिसे कोई भी नही तोड़ सका कर्ण जो अंग देश का राजा था वो ये प्रतियोगिता जीत सकता था पर उसे अवसर नही दिया गया अंत मे अर्जुन ने ये शर्त जीती और द्रौपदी से उनका विवाह हुआ। जब अर्जुन अपने कुटिया पहुचें तो कुन्ती पूजा कर रही थी। अर्जुन ने जब कहा की माता हम कुछ लाये है तो बिन देखे ही उन्होंने आपस मे बाट लेने को कहा , माता की आज्ञा तो सबसे ऊपर थी । अतः द्रौपदी ने सभी पांडवो की पति रूप मे सेवा की पर पत्नी सिर्फ अर्जुन की थी ।
द्रौपदी का चीर हरण
महाभारत में युद्धिष्ठिर सब कुछ हार ने के बाद उन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रौपदी को बालों को पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। जब वहां द्रौपदी का अपमान हो रहा था तब भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसे न्यायकर्ता और महान लोग भी बैठे थे लेकिन वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। इन सभी को उनके मौन रहने का दंड भी मिला।[4]
देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रौपदी की साड़ी (चीर) उतारना शुरू कर दी। सभी मौन थे, पांडव भी द्रौपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए क्योंकि वे जुए में द्रौपदी को हार चुके थे। फिर बाद में द्रौपदी ने आंखें बंद कर वासुदेव श्रीकृष्ण का आव्हान किया। श्रीकृष्ण उस वक्त सभा में मौजूद नहीं थे।
द्रौपदी ने कहा, ''हे गोविंद आज आस्था और अनास्था के बीच जंग है। आज मुझे देखना है कि ईश्वर है कि नहीं''...तब श्री हरि ने सभी के समक्ष एक चमत्कार प्रस्तुत किया और द्रौपदी की साड़ी तब तक लंबी होती गई जब तक की दुशासन बेहोश नहीं हो गया।
कहते हैं कि श्रीकृष्ण द्वारा द्रौपदी की लाज बचाने के पीछे दो कारण थे। पहला यह कि वह उनकी सखी थीं और दूसरा यह कि उसने दो पुण्य कार्य किए थे।
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