पवित्र उपवन झील क्या है
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प्रकृति संरक्षण प्राचीन काल से आदिवासियों की संस्कृति का एक अटूट अंग रहा है। इसके मूल में उनकी प्रकृति पर निर्भरता एवं उसके प्रति उनका सम्मान है। प्रकृति प्रेम के द्वारा वे अपने को पूर्वजों और ईश्वर से जुड़ाव का अनुभव करते हैं। इस प्रकार की परंपरा कबीलों में रहने वाले मूल निवासियों में विश्व के विभिन्न देशों में आज भी पायी जाती है। इनमें पौधों जीव-जन्तुओं, यहाँ तक कि प्राकृतिक स्थान जैसे झील, पर्वत, नदी इत्यादि को पवित्र मानकर संरक्षित किया गया है। इसे आज भी शिकार एवं वनजन्य वस्तुओं पर निर्भर (Hunter gatherer) समुदायों के धार्मिक अनुष्ठानों में देखा जा सकता है। जंगली पशु-पक्षी, शिकार के औजार और शिकारी की पूजा इनके धार्मिक अनुष्ठानों में देखने को मिलती है।
भारतवर्ष के विभिन्न भागों में आदिवासियों की एक बड़ी संख्या निवास करती है। ये समुदाय अपने आस-पास के वनों को पवित्र मानते हुए उनका संरक्षण करते हैं। भारत में यह परंपरा अति प्राचीन है जिसका उल्लेख वैदिक ऋचाओं में भी मिलता है अनेक पौधों की प्रजातियाँ जैसे पीपल, तुलसी, रुद्राक्ष, कदम्ब, अशोक आदि पवित्र माने जाते हैं। अनेक पौधों का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में होता है। वनों, जलाशयों को स्थानीय देवी देवताओं को समर्पित करने की परंपरा रही है।
आदिवासियों में प्रकृति पूजा की एक महत्त्वपूर्ण परंपरा वनों के संरक्षण के रूप में दिखाई देती है। इसमें गाँव के पास स्थित वन के एक भाग को इस विश्वास के साथ संरक्षित किया जाता है कि इनमें पूर्वजों और स्थानीय देवी-देवताओं का निवास होता है। इस कारण इन्हें पवित्र माना जाता है और इनमें किसी प्रकार का विध्वंसक कार्य वर्जित होता है। केवल समय-समय पर परंपरा के अनुसार पूजा-अर्चना की जाती है। इस प्रकार के वनों को पवित्र वन (Sacred grove) कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने इन वनों को परिभाषित करने का प्रयास किया है। ह्यूगीज और चंद्रन (1998) के अनुसार लैंडस्केप (Landscape) का वह भाग जिसमें उस स्थान की भूसंरचना एवं वनस्पति का एक हिस्सा जिसे वहाँ के आदिवासियों का संरक्षण प्राप्त है, पवित्र वन कहा जाता है। इस स्थान को स्थानीय लोग अपने पूर्वजों एवं अदृश्य ईश्वरीय शक्ति से जुड़ाव का माध्यम मानते हैं। अत: इसकी पवित्रता अक्षुण्ण रखने के लिये इसमें सामान्यत: मनुष्यों का प्रवेश वर्जित होता है। इन वैज्ञानिकों के मतानुसार ये वन शायद आदि मानव के ‘‘प्रथम देवालय’’ थे। इस प्रकार के वनों के अवशेष ग्रीस में पाये जाते हैं। इन अवशेषों के अध्ययन से आभास होता है कि वन के एक भाग को पत्थरों से घेरकर सुरक्षित रखा जाता था। इन्हें ग्रीक भाषा में ‘‘टेमीनॉस’’ (Temenos) अथवा Cut-off or demarcated place कहा जाता था।
पवित्र वनों के इतिहास का अध्ययन करने वाले दो भारतीय वैज्ञानिक, प्रोफेसर माधव गाड़गिल और वर्तक (1975), इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव मन में अक्षुण्ण (Virgin) वन की परिकल्पना लगभग 3000-5000 वर्ष ईसा पूर्व की है जब मनुष्य शिकार और वनों से प्राप्त वस्तुओं पर निर्भर था। इस समय मनुष्य ने खेती करना नहीं सीखा था। ऐसा संभव है जब मनुष्य ने जंगलों को जलाकर खाली भूमि में खेती प्रारंभ किया हो उस समय वनों के छोटे-छोटे हिस्सों को अपने पूर्वजों और स्थानीय देवी-देवताओं को समर्पित किया हो। सामान्यत: ये वन जलसह (Watershed) क्षेत्र में स्थित होते थे जहाँ से उन्हें वर्षभर जल उपलब्ध था। अत: शायद यह मान्यता रही होगी कि इन वनों में निवास करने वाले देवी-देवताओं की कृपा से उन्हें जल उपलब्ध होता है। कुछ मानव पुरावेत्ता (Anthropologist) जैसे कलाम (1995) का विचार है कि ये वन एक प्राचीन परंपरा का फल है जिसके फलस्वरूप एक ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था का जन्म हुआ जिसमें कबीलाई लोग अपने धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य इन वनों के पास करने लगे क्योंकि उनकी मान्यता थी कि यहाँ पूर्वजों की आत्मा और स्थानीय देवी-देवता निवास करते हैं। कारण जो भी रहा हो आज भी विश्व के विभिन्न देशों में पवित्र वनों की उपस्थिति मनुष्य के प्रकृति प्रेम और उसके संरक्षण की भावना की ओर इंगित करती है।