Ped pakshi aur manushya ke liye paropkari hai is vishay per 40 se 50 shabdon mein Apne vichar vyakt kijiye
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परोपकार प्रकृति का सहज स्वाभाविक नियम है। जलवायु, मिट्टी, वृक्ष, प्रकाश, पशु, पक्षी आदि प्रकृति के सभी अंग किसी न किसी रूप में दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं। अर्थात् वृक्ष परोपकार के लिये फलते हैं, नदियाँ परोपकार के लिये बहती हैं, गाय परोपकार के लिये दूध देती है। यह शरीर भी परोपकार के लिये है। वास्तव में जब प्रकृति के जीव-जन्तु निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं तब विवेकशील प्राणी होते हुए भी मनुष्य यदि मानव जाति की सेवा न कर सके तो जीवन सफलता के लिये कलंक स्वरूप है। मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने का उसे कोई अधिकार नहीं है। परोपकार ही मानवता का सच्चा आदर्श है। यही सच्ची मनुष्यता है। राष्ट्रकवि गुप्तजी ने यह कहा कि “वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिये मरे।” मनुष्य वही है जो केवल अपने सुख-दुःख की चिन्ता में लीन नहीं रहता, केवल अपने स्वार्थ की ही बात नहीं सोचता, जिसका शरीर लेने के लिये नहीं देने के लिये है। उसका हृदय सागर की भाँति विशाल होता है, जिसमें समस्त मानव समुदाय के लिये प्रेम से भरा स्थान रहता है। सारे विश्व को वह अपना परिवार समझता है। सचमुच परोपकार ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। यदि किसी मनुष्य के हृदय में त्याग और सेवा की भावना नहीं है, उसका मन्दिरों में जाकर पूजा और अर्चना करना ढोंग और पाखण्ड है। प्रसिद्ध नीतिकार सादी का कथन है कि “अगर तू एक आदमी की तकलीफ को दूर करता है तो वह कहीं अधिक अच्छा काम है, बजाय कि तू हज को जाये और मार्ग की हर एक मंजिल पर सौ बार नमाज पढ़ता जाये।” सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह दूसरों के सुख-दुःख की चिन्ता करे, क्योंकि उसका सुख-दुःख दूसरों के सुख-दुःख के साथ जुड़ा हुआ है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने स्वार्थ साधन में लिप्त न रहकर दूसरों की भलाई के लिए भी कार्य करे। बिना किसी स्वार्थ भाव को लेकर दूसरों की भलाई के लिये कार्य करना ही मनुष्यता है। इस परोपकार के अनेक रूप हो सकते हैं। यदि आप शरीर से शक्तिमान हैं तो आपका कर्त्तव्य है कि दूसरों के द्वारा सताये गये दीन-दुःखियों की रक्षा करें। यदि आपके पास धन-सम्पदा है तो आपको विपत्तियों में फँसे अपने असहाय भाइयों का सहायक बनना चाहिए। भूखों को रोटी और निराश्रितों को आश्रय देना चाहिए। यदि आप यह सब कुछ करने में भी असमर्थ हैं तो अपने दुःखी और पीड़ित भाइयों को मीठे शब्दों द्वारा धीरज और सांत्वना प्रदान कीजिए। यही नहीं, किसी भूले हुए को रास्ता दिखा देना, संकट में अच्छी सलाह देना, अन्धों का सहारा बन जाना, घायल अथवा रोगी की चिकित्सा करना, ये सब परोपकार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। वास्तव में हृदय में किसी के प्रति शुभ विचार भी परोपकार का ही रूप है। प्राचीनकाल में दधीचि नाम के प्रसिद्ध महर्षि थे। ईश्वर-प्राप्ति ही उनका जैसे लक्ष्य था, परन्तु परोपकार वश उन्होंने देवताओं को वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डियाँ तक दान में दे दी थीं। गुरु तेग बहादुर ने परोपकार के लिए अपना शीश औरंगजेब को भेंट कर दिया था। हमारा कर्तव्य है कि हम प्रकति से शिक्षा लें तथा अपने महापुरुषों के जीवन का अनुसरण करें। नि:स्वार्थ भाव से परोपकार के कार्यों में लगें। (a) परोपकार से आप क्या समझते हैं? गद्यांश के अनुसार किन महापुरुषों ने अपने जीवन का त्याग परोपकार के लिये किया? (b) प्रकृति के अंग किस प्रकार हमें परोपकार की शिक्षा देते (c) परोपकारी मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है? (d) परोपकार मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म किस प्रकार होता (e) गद्यांश के आधार पर बताइए कि परोपकार के महत्त्वपूर्ण अंग कौन-से हैं, किस-किस तरह से परोपकार किया जा सकता है?