Phanishwar nath renu stories raspriya ki samiksha
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां अपनी संरचना, प्रकृति शिल्प और रस में हिंदी कहानियों की परंपरा में एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित होती रही हैं। वस्तुतः एक नई कथा-धारा का प्रारम्भ इन्हीं कहानियों से होता है। ये जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं, उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। संभवतः रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए नया सौंदर्य शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
ये कहानियाँ किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केन्द्र में रखकर नहीं बुनी गई हैं, अपितु ये हमें सीधे-साधे जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप में निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है। रेणु का महत्व वस्तुतः मात्र आंचलिकता में नहीं, उसके अतिक्रमण में है। पुस्तक में रेणु की 21 कहानियाँ संकलित हैं, जो समय-समय पर अत्यंत चर्चित हुईं। संकलन श्री भारत यायावर ने किया है, जिन्होंने न केवल रेणु की श्रेष्ठ कहानियां संकलित की हैं बल्कि उन्हें एक ऐसे क्रम में भी रखा है, जिससे पाठकों को रेणु के कथाकार का सही-सही साक्षात्कार हो सके।
भूमिका
हिंदी कहानी अपनी विकास-यात्रा की कई मंजिलें तय कर चुकी है। अपने प्रारंभिक दौर में ही इसे प्रेमचंद जैसे प्रतिभाशाली कथाशिल्पी का योगदान मिल गया, जिसके कारण हिंदी कहानी शिखर तक पहुंच गयी। प्रेमचंद ने वैविध्यपूर्ण कथा-क्षेत्रों का पहली बार उद्घाटन अपनी कहानियों में किया, साथ ही शिल्प के अनेक प्रयोग भी किये। प्रेमचंद के परवर्ती कथाकारों जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल आदि ने उसे नये आयाम दिये, पर प्रेमचंद की परंपरा से अलग हटकर सूक्ष्म ऐंद्रिकता और कलात्मकता के साथ ये कथाकार हिंदी कहानी के नागरिक जीवन की बारीकियों के उद्गाता हुए। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को पहली बार एक नयी पहचान और भंगिमा दी। रेणु, प्रेमचंद और जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल की पीढ़ी तथा स्वातंत्र्योत्तर कथा-पीढ़ी, जिसे नयी कहानी आंदोलन का जन्मदाता कहा जाता है, के संधिकाल में उभरे कथाकार हैं। इसीलिए उनकी समवयस्कता कभी अज्ञेय, यशपाल के साथ, तो कभी नयी कहानी के कथाकारों के साथ घोषित की जाती रही है।
रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास, ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन अगस्त 1954 में हुआ था, और उसके ठीक दस वर्ष पूर्व अगस्त, 1944 में उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी थी। यानी रेणु की कहानियां ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के दस वर्ष पहले से ही छपने लगी थीं। पांचवें दशक में उनकी अनेक महत्त्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं। ये कहानियां ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ के प्रौढ़ कथा-शिल्पी की ही कहानियां थीं, जिनमें एक बड़े कलाकार के रूप में आकार ग्रहण करने वाले लेखक की कला-सजग आंखें, गहरी मानवीय संवेदना, बदलते सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की मजबूत पकड़ वैसी ही थी, जैसी उनकी बाद की रचनाओं में दिखाई पड़ती है। मगर ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ की अपार लोकप्रियता और इन दोनों उपन्यासों पर प्रारंभ से ही उत्पन्न विवादों एवं बहसों के फलस्वरूप रेणु की कहानियों का अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया।
रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती हैं। अंततः एक नयी कथा-धारा का प्रारंभ इनसे होता है। ये कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नये सौंदर्य-शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
रेणु ने जिन कथाकारों से प्रेरणा ग्रहण की, वे हैं रूसी कथाकार मिखाइल शोलोखोव, बंगला कथाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद। रेणु की कहानियों पर इन चारों का मिलाजुला प्रभाव दिखाई पड़ता है।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां अपनी संरचना, प्रकृति शिल्प और रस में हिंदी कहानियों की परंपरा में एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित होती रही हैं। वस्तुतः एक नई कथा-धारा का प्रारम्भ इन्हीं कहानियों से होता है। ये जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं, उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। संभवतः रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए नया सौंदर्य शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
ये कहानियाँ किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केन्द्र में रखकर नहीं बुनी गई हैं, अपितु ये हमें सीधे-साधे जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप में निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है। रेणु का महत्व वस्तुतः मात्र आंचलिकता में नहीं, उसके अतिक्रमण में है। पुस्तक में रेणु की 21 कहानियाँ संकलित हैं, जो समय-समय पर अत्यंत चर्चित हुईं। संकलन श्री भारत यायावर ने किया है, जिन्होंने न केवल रेणु की श्रेष्ठ कहानियां संकलित की हैं बल्कि उन्हें एक ऐसे क्रम में भी रखा है, जिससे पाठकों को रेणु के कथाकार का सही-सही साक्षात्कार हो सके।
भूमिका
हिंदी कहानी अपनी विकास-यात्रा की कई मंजिलें तय कर चुकी है। अपने प्रारंभिक दौर में ही इसे प्रेमचंद जैसे प्रतिभाशाली कथाशिल्पी का योगदान मिल गया, जिसके कारण हिंदी कहानी शिखर तक पहुंच गयी। प्रेमचंद ने वैविध्यपूर्ण कथा-क्षेत्रों का पहली बार उद्घाटन अपनी कहानियों में किया, साथ ही शिल्प के अनेक प्रयोग भी किये। प्रेमचंद के परवर्ती कथाकारों जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल आदि ने उसे नये आयाम दिये, पर प्रेमचंद की परंपरा से अलग हटकर सूक्ष्म ऐंद्रिकता और कलात्मकता के साथ ये कथाकार हिंदी कहानी के नागरिक जीवन की बारीकियों के उद्गाता हुए। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को पहली बार एक नयी पहचान और भंगिमा दी। रेणु, प्रेमचंद और जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल की पीढ़ी तथा स्वातंत्र्योत्तर कथा-पीढ़ी, जिसे नयी कहानी आंदोलन का जन्मदाता कहा जाता है, के संधिकाल में उभरे कथाकार हैं। इसीलिए उनकी समवयस्कता कभी अज्ञेय, यशपाल के साथ, तो कभी नयी कहानी के कथाकारों के साथ घोषित की जाती रही है।
रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास, ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन अगस्त 1954 में हुआ था, और उसके ठीक दस वर्ष पूर्व अगस्त, 1944 में उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी थी। यानी रेणु की कहानियां ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के दस वर्ष पहले से ही छपने लगी थीं। पांचवें दशक में उनकी अनेक महत्त्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं। ये कहानियां ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ के प्रौढ़ कथा-शिल्पी की ही कहानियां थीं, जिनमें एक बड़े कलाकार के रूप में आकार ग्रहण करने वाले लेखक की कला-सजग आंखें, गहरी मानवीय संवेदना, बदलते सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की मजबूत पकड़ वैसी ही थी, जैसी उनकी बाद की रचनाओं में दिखाई पड़ती है। मगर ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ की अपार लोकप्रियता और इन दोनों उपन्यासों पर प्रारंभ से ही उत्पन्न विवादों एवं बहसों के फलस्वरूप रेणु की कहानियों का अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया।
रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती हैं। अंततः एक नयी कथा-धारा का प्रारंभ इनसे होता है। ये कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नये सौंदर्य-शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
रेणु ने जिन कथाकारों से प्रेरणा ग्रहण की, वे हैं रूसी कथाकार मिखाइल शोलोखोव, बंगला कथाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद। रेणु की कहानियों पर इन चारों का मिलाजुला प्रभाव दिखाई पड़ता है।
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