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नारी ब्रह्मा विद्या हैं श्रद्धा है आदि शक्ति है सद्गुणों की खान हैं और वह सब कुछ है जो इस प्रकट विश्व में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होती होता हैं.
नारी वह सनातन शक्ति है जो अनादि काल से उन सामाजिक दायित्वों का वहन करती आ रही हैं, जिन्हें पुरुषों का कंधा सम्भाल नहीं पाता. माता पिता के रूप में नारी ममता, करुणा, वात्सल्य, सह्रदयता जैसे सद्गुणों से यूक्त हो.किसी भी राष्ट्र के निर्माण में उस राष्ट्र की आधी आबादी की भूमिका की महत्ता से इनकार नही किया जा सकता हैं. आधी आबादी यदि किसी भी कारण से निष्क्रिय रहती हैं तो उस राष्ट्र या समाज की समुचित और उल्लेखनीय प्रगति के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं.
लेकिन समय के साथ साथ भारतीय समाज में उत्तर वैदिक काल से ही महिलाओं की स्थिति निम्नतर होती गई और मध्यकाल तक आते आते समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों ने स्त्रियों की स्थिति को और बदतर कर दिया.
आधुनिकता के आगमन एवं शिक्षा के प्रसार ने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाना प्रारम्भ किया, जिसका परिणाम राष्ट्र की समुचित प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर होने के रूप में सामने हैं.
आधुनिक युग में स्वाधीनता संग्राम के दौरान महारानी लक्ष्मीबाई, विजयालक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरु, सुचेता कृपलानी, मणीबेन पटेल अमृत कौर जैसी स्त्रियों ने आगे बढ़कर पूरी क्षमता एवं उत्साह के साथ भाग लिया. भारतीय नारी के उत्थान हेतु समर्पित विदेशी स्त्रियाँ एनी बेसेंट, मैडम कामा, सिस्टर निवेदिता आदि से अत्यधिक प्रेरणा मिली.
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद स्त्रियों ने सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में अपनी स्थिति को निरंतर सुद्रढ़ किया हैं. श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित विश्व की पहली महिला थी जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्षा बनी.
सरोजनी नायडू स्वतंत्र भारत की पहली महिला राज्यपाल थी. जबकि सुचेता कृपलानी प्रथम मुख्यमंत्री. श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्र को दिए जाने वाले योगदान को भला कौन भूल सकता हैं, जो लम्बे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रही.चिकित्सा का क्षेत्र हो या इंजीनियरिंग का, सिविल सेवा का हो या बैंक का, पुलिस का हो या फौज का, वैज्ञानिक हो या व्यवसायी प्रत्येक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर स्त्रिया आज सम्मान के पद पर आसीन हैं.
किरण बेदी, कल्पना चावला, मीरा कुमार, सोनिया गांधी, बछेंद्री पाल, संतोष यादव, सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी टी उषा, कर्णम मल्लेश्वरी आदि की क्षमता एवं प्रदर्शन को भुलाया नहीं जा सकता. आज नारी पुरुषों से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं और देश को आगे बढ़ा रही हैं.
राष्ट्र के निर्माण में स्त्रियों का सबसे बड़ा योगदान घर एवं परिवार को संभालने के रूप में हमेशा रहा हैं. किसी भी समाज में श्रम विभाजन के अंतर्गत कुछ सदस्यों को घर एवं बच्चों को संभालना एक अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व हैं. अधिकांश स्त्रियाँ इस दायित्व का निर्वाह बखूबी कर रही हैं.
घर को संभालने के लिए जिस कुशलता और दक्षता की आवश्यकता होती है उसका पुरुषों के पास सामान्यतया अभाव होता हैं इसलिए स्त्रियों का शिक्षित होना अनिवार्य हैं,
यदि स्त्री शिक्षित नहीं होगी तो आने वाली पीढियां अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकती एक शिक्षित स्त्री पूरे परिवार को शिक्षित बना देती हैं.
निश्चित रूप से नारी ने अनेक बाधाओं के बावजूद नई बुलंदियों को छुआ हैं. और घर के अतिरिक्त बाहर भी स्वयं को सुद्रढ़ता से स्थापित किया हैं. लेकिन इन सबके बावजूद उसकी समस्याए अभी भी बनी हुई हैं.उन्होने अपनी सफलताओं के झंडे ऐसे गाड़े है कि पुरानी रूढ़िया हिल गई हैं शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जो महिलाओ की भागीदारी से अछूता हो.
उसकी स्थिति में आया अभूतपूर्व सुधार उसे हाशिये पर रखना असम्भव बना रही हैं. नारी के जुझारूपन का लोहा सबकों मानना पड़ रहा हैं.
वास्तव में स्त्री के प्रति उपेक्षा का सिलसिला उसके जन्म के साथ ही शुरू हो जाता हैं और घर परिवार ही उसका प्रथम उपेक्षा का स्थल बन जाता हैं. स्त्री की उपेक्षा की मुक्ति घर की देहरी पार करने के बाद ही मिलती हैं.
हमारे यहाँ शास्त्रों में कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता हैं, और हम मानते है कि देवता कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं.
इसलिए कहा जा सकता है कि जिस समाज में नारी बढ़ चढ़कर विभिन्न क्षेत्र से सम्बन्धित कार्यों में हिस्सा लेती है वहां प्रगति की संभावनाएं अत्यंत बढ़ जाती हैं.
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जब भारतीय ऋषियों ने अथर्ववेद में ‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः’ (अर्थात भूमि मेरी माता है और हम इस धरा के पुत्र हैं।) की प्रतिष्ठा की तभी सम्पूर्ण विश्व में नारी-महिमा का उद्घोष हो गया था। नेपोलियन बोनापार्ट ने नारी की महत्ता को बताते हुए कहा था कि -‘मुझे एक योग्य माता दे दो, मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूंगा।’
भारतीय जन-जीवन की मूल धुरी नारी (माता) है। यदि यह कहा जाय कि संस्कृति, परम्परा या धरोहर नारी के कारण ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती रही है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब-जब समाज में जड़ता आयी है, नारी शक्ति ने ही उसे जगाने के लिए, उससे जूझने के लिए अपनी सन्तति को तैयार करके, आगे बढ़ने का संकल्प दिया है।
कौन भूल सकता है माता जीजाबाई को, जिसकी शिक्षा-दीक्षा ने शिवाजी को महान देशभक्त और कुशल योद्धा बनाया। कौन भूल सकता है पन्ना धाय के बलिदान को पन्नाधाय का उत्कृष्ट त्याग एवं आदर्श इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। वह उच्च कोटि की कर्तव्य परायणता थी। अपने बच्चे का बलिदान देकर राजकुमार का जीवन बचाना सामान्य कार्य नहीं। हाड़ी रानी के त्याग एवं बलिदान की कहानी तो भारत के घर-घर में गायी जाती है। रानी लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्ताना, पद्मिनी और मीरा के शौर्य एवं जौहर एवं भक्ति ने मध्यकाल की विकट परिस्थितियों में भी अपनी सुकीर्ति का झण्डा फहराया। कैसे कोई स्मरण न करे उस विद्यावती का जिसका पुत्र फांसी के तख्ते पर खड़ा था और मां की आंखों में आंसू देखकर पत्रकारों ने पूछा कि एक शहीद की मां होकर आप रो रही हैं तो विद्यावती का उत्तर था कि ‘मैं अपने पुत्र की शहीदी पर नहीं रो रही, कदाचित् अपनी कोख पर रो रही हूं कि काश मेरी कोख ने एक और भगत सिंह पैदा किया होता, तो मैं उसे भी देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर देती।’ ऐसा था भारतीय माताओं का आदर्श। ऐसी थी उनकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा।
परिवार के केन्द्र में नारी है। परिवार के सारे घटक उसी के चतुर्दिक घूमते हैं, वहीं पोषण पाते हैं और विश्राम। वही सबको एक माला में पिरोये रखने का प्रयास करती है। किसी भी समाज का स्वरूप वहां की नारी की स्थिति पर निर्भर करता है। यदि उसकी स्थिति सुदृढ़ एवं सम्मानजनक है तो समाज भी सुदृढ़ एवं मजबूत होगा। भारतीय महिला सृष्टि के आरंभ से अनन्त गुणों की आगार रही है। पृथ्वी की सी सहनशीलता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की गम्भीरता, पुष्पों जैसा मोहक सौन्दर्य, कोमलता और चन्द्रमा जैसी शीतलता महिला में विद्यमान है। वह दया, करूणा, ममता, सहिष्णुता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त वह हमारी संरक्षिका बनी रहती है । सीता, सावित्री, गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान् नारियों ने इस देश को अलंकृत किया है। निश्चित ही महिला इस सृष्टि की सबसे सुन्दर कृति तो है ही, साथ ही एक समर्थ अस्तित्व भी है।
वह जननी है, अतः मातृत्व महिमा से मंडित है। वह सहचरी है, इसलिए अर्धांगिनी के सौभाग्य से श्रृंगारित है। वह गृहस्वामिनी है, इसलिए अन्नपूर्णा के ऐश्वर्य से अलंकृत है। वह शिशु की प्रथम शिक्षिका है, इसलिए गुरु की गरिमा से गौरवान्वित है। महिला घर, समाज और राष्ट्र का आदर्श है। कोई पुण्य कार्य, यज्ञ, अनुष्ठान, निर्माण आदि महिला के बिना पूर्ण नहीं होता है। सशक्त महिला सशक्त समाज की आधारशिला है। महिला सृष्टि का उत्सव, मानव की जननी, बालक की पहली गुरु तथा पुरूष की प्रेरणा है।
यदि महिला को श्रद्धा की भावना अर्पित की जाए तो वह विश्व के कण-कण को स्वर्गिक भावनाओं से ओतप्रोत कर सकती है। महिला एक सनातन शक्ति है। वह आदिकाल से उन सामाजिक दायित्वों को अपने कन्धों पर उठाए आ रही है, जिसे अगर पुरुषों के कन्धे पर डाल दिया गया होता, तो वह कब का लड़खड़ा गया होता। पुरातन कालीन भारत में महिलाओं को उच्च स्थान प्राप्त था। पुरूषों के समान ही उन्हें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक कृत्यों में भाग लेने का अधिकार था। वे रणक्षेत्र में भी पति को सहयोग देती थी। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय रणकौशल से महाराज दशरथ को चकित कर दिया था। याज्ञवल्क्य की सहधर्मिणी गार्गी ने आध्यात्मिक धन के समक्ष सांसारिक धन तुच्छ है, सिद्ध करके समाज में अपना आदरणीय स्थान प्राप्त किया था। विद्योत्तमा की भूमिका सराहनीय है, जिसने कालिदास को संस्कृत का प्रकाण्ड पंडित बनाने में सफलता प्राप्त की। तुलसीदास जी के जीवन को आध्यात्मिक चेतना देने में उनकी पत्नी का ही बुद्धि चातुर्य था। मिथिला के महापंडित मंडनमिश्र की धर्मपत्नी विदुषी भारती ने शंकराचार्य जैसे महाज्ञानी व्यक्तित्व को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
लेकिन चूंकि भारत के अस्सी प्रतिशत से अधिक तथाकथित विद्वान गौतम बुद्धोत्तरकालीन भारत को ही जानते पहचानते हैं और उनमें भी प्रतिष्ठा की धुरी पर बैठे लोग, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में लिखे ग्रन्थों से ही, भारत का अनुभव एवं मूल्यांकन करते हैं, अतः नारी विषयक आर्ष-अवधारणा तक वे पहुंच ही नहीं पाते। उन्हें केवल वह नारी दिखाई पड़ती है जिसे देवदासी बनने को बाध्य किया जाता था, जो नगरवधू बनती थी अथवा विषकन्या के रूप में प्रयुक्त की जाती थी। महिमामयी नारी के इन संकीर्ण रूपों से इंकार तो नहीं किया जा सकता। परंतु हमें यह समझना चाहिए कि वे नारी के संकटकालीन रूप थे, शाश्वत नहीं। हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि रोमन साम्राज्य (इसाई जगत, इस्लाम जगत) तथा अन्यान्य प्राचीन संस्कृतियों में नारी की जो अवमानना, दुर्दशा एवं लांछना हुई है- जिसके प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध हैं, वैसा भारतवर्ष में कम से कम, मालवेश्वर भोजदेव के शासन काल तक कभी नहीं हुआ।