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मनुष्य विकल्पों में जीता है। विकल्प मनुष्य की मनुष्य होने की पहचान भी है। यही पहचान उसे सम्पूर्ण जीव-जगत में सबसे श्रेष्ठ बनाती है। दूसरी ओर मनुष्य हृदय से अधिक बुद्धि का स्वामी है। बुद्धि और हृदय की जंग में बुद्धि बलवान बनकर उभरती है। प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता भी इसी हृदय और बुद्धि के समान है।
जयशंकर प्रसाद ने भी प्रकृति में ह्रदय और बुद्धि की जंग को कामायनी जैसे महाकाव्य के माध्यम से प्रकट किया और इस जंग में बुद्धि को भौतिकतावादी और उपभोगवादी मनोवृति का परिचायक माना। ‘अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा/ यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा’। वर्तमान समय में व्यक्ति अतृप्त लालसाओं का बढ़ते जाना उसे अपने ही अस्तित्व की समाप्ति की ओर लेकर जा रहा है। यही कारण है जीवन के संतुलन के लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध चरमरा गया है। यह असंतुलन मनुष्य की लालसावादी मनोवृति से उपजा है।
कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति और मनुष्य के बीच के संतुलित संबंध का आधार समरसता को माना। यही भाव प्रकृति और व्यक्ति को जोड़ता है। परंतु आज समरसता खत्म हो गयी है आधिपत्य की मानसिकता उभर रही है। यही से प्रकृति और मनुष्य का संबंध द्वन्द्वात्मक रूप में उभर रहा है। प्रकृति जिसे शास्त्रों में माता तुल्य माना गया जिसने अपने स्वभाव और मनोवृति के अनुरूप कभी लिया नहीं हमेशा खुले हृदय से दिया ही। जिसने प्रकृति की सभी अनमोल धरोहरों जल, हवा, सूर्य से लेकर अपने भीतर के सभी संसाधनों के द्वार मनुष्य के लिए खोल दिए है।
परंतु वहीं मनुष्य बुद्धि के बल पर प्रकृति का नियंता और नियामक बन गया है। उसी ने प्रकृति के अति-दोहन में प्रकृति के ही अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में अत्याधुनिक सुविधाओं से लेस प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति का दोहन कर रहा है। प्रकृति से प्राप्त सुविधाओं का अंधाधुंध प्रयोग उसे अधिक खतरे में डाल रहा है। चारों ओर पर्यावरण का संकट गहरा गया है। एक ओर अमेजोन के जंगल जल रहे हैं जो मानव निर्मित आपदा थी तो दूसरी ओर आस्ट्रेलिया के जंगल जल रहे हैं जो कहने को प्राकृतिक आपदा है परंतु यह स्थितियां मानव निर्मित है।