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एक सिपाही : एक आदमी ने अपनी बाइक को चौराहे बिंदु पर रोक दिया था क्योंकि लाल सिग्नल वाली रौशनी चमक गयी थी। वह जीन्स और टी-शर्ट पहने हुए थे। उसका हेल्मेट अच्छी तरह से बंधा हुआ था। वो एक अच्छे आदमी की तरह ट्रैफिक सिग्नल द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन कर रहा था।
इस बीच, दो जवान लड़के वहां से गुज़रे। उन्होंने अपनी बाइक को धीमा कर दिया और चारों ओर देखा। चूंकि कोई ट्रैफिक पुलिस अधिकारी स्पॉट पर नहीं था और वहां काफी कम ट्रैफिक था, इसलिए उन्होंने हेलमेट वाले आदमी को अजीब तरह से हँसते हुवे देखा और अपनी बीके आगे बाधा दी.
दूसरी तरफ हेलमेट पहने हुवे आदमी ने भी उन्हें अपनी ओर अजीब तरह से घूरते हुवे देखा लेकिन उसने कुछ रिस्पांस नहीं दिया। अगले ही दिन, इत्तेफाक से वही हेलमेट वाला आदमी उसी जगह पर खड़ा था क्यूंकि ट्रैफिक सिग्नल लाल हो रखा था और फिर वही दो लड़के वहां से गुज़रे.
इस बार, उन्होंने बाइक को धीमा नहीं किया, बल्कि बंद कर दिया था। उन्होंने उसी हेलमेट वाले आदमी को आज हरी और भूरी ड्रेस पहने हुए देखा, उन्होंने उसके साथ नज़रे मिलाई। उन्होंने ट्रैफिक लाइट को हरा होने के बाद उस आदमी को पहले जाने का इशारा दिया अपनी तरफ से उस आदमी को सम्मान देने के लिए
अगले ही पल में, सेना के आदमी ने उन दोनों जवान लडको को देखकर मुस्कुराया। न केवल ट्राफिक रूल्स का, बल्कि गर्व और सम्मान के नियमों का भी पालन किया गया था।
इस कहानी से हमे ये तो शिक्षा मिलती ही हैं की हमे अपने देश के वीर जवानो का सम्मान करना चाहिए लेकिन साथ ही ट्रैफिक रूल्स का भी, ये बड़ी ही शर्मनाक बात हैं की हमे ट्रैफिक के रूल्स का पालन करने के लिए किसी पुलिस ऑफिसर के आसपास रहने की जरुरत पड़ती हैं. खुद के अंदर इतनी समझ होनी चाहिए की हम अपनी जान का ख्याल तो रखे ही साथ ही दुसरो की जान का भी. अगर कहानी पसंद आई तो हमे कमेंट सेक्शन में अवश्य बताएं. धन्यवाद.
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भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कहने पर ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ गीत लिखने वाले स्वतंत्रता सेनानी कवि श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ के नाम और संघर्षशील जीवन से कम ही लोग परिचित हैं। वह स्वाधीनता आन्दोलन में छह साल तक राजनैतिक बन्दी रहे। उसी दौरान वह महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, कवि रामनरेश त्रिपाठी आदि के संपर्क में पहुंचे। रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था। वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में सम्पूर्ण रामकथा सुनाई थी। वह सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य इण्टर कालेज, अनाथालय, बालिका विद्यालय, गणेश विद्यापीठ, दोसर वैश्य महासभा, वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया।
जालियावाला कांड की दुखद स्मृति में पहली बार झंडा-गीत 13 अप्रैल 1924 को जवाहर लाल नेहरू की मौजूदगी में कानपुर के फूलबाग मैदान में हज़ारों लोगों के बीच गाया गया। नेहरू जी ने गीत सुनने के बाद कहा था- 'लोग भले ही श्यामलाल गुप्त को नहीं जानते हैं, राष्ट्रीय ध्वज के लिए लिखे इस गीत से अब पूरा देश परचित हो चुका है।' देश आजाद होने के पांच वर्ष बाद ‘पार्षद’ जी ने अपनी इस अमर रचना का 15 अगस्त 1952 को लालकिले पर स्वयं पाठ किया था। 'झंडा-गीत' नाम से प्रसिद्ध यह पूरी कविता इस प्रकार है -
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसानेवाला, वीरों को हर्षाने वाला,
शांति सुधा बरसानेवाला मातृभूमि का तन-मन सारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
लाल रंग भारत जननी का, हरा अहले इस्लाम वली का,
श्वेत सभी धर्मों का टीका, एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
है चरखे का चित्र संवारा, मानो चक्र सुदर्शन प्यारा,
हरे देश का संकट सारा, है यह सच्चा भाव हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
स्वतंत्रता के भीषण रण में, लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में,
काँपे शत्रु देखकर मन में, मिट जायें भय संकट सारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस चरखे के नीचे निर्भय, होवे महाशक्ति का संचय,
बोलो भारत माता की जय, सबल राष्ट्र है ध्येय हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
आओ प्यारे वीरो आओ, राष्ट्र ध्वजा पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ, प्यारा भारत देश हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
शान न इसकी जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए,
विश्व विजय करके दिखलाए, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस गीत का स्वयं में एक इतिहास है। ‘पार्षद’ जी का जन्म कानपुर (उ.प्र.) के पास नरवल गाँव में 09 दिसम्बर 1893 को हुआ था। मिडिल क्लास फर्स्ट क्लास पास करने के बाद पिता विशेश्वर प्रसाद गुप्त उनको व्यावसायिक उद्यम में सक्रिय करना चाहते थे लेकिन वह पढ़ाई पूरी कर अध्यापक बनना चाहते थे। जब वह पाँचवीं कक्षा में थे, उन्होंने यह कविता लिखी- 'परोपकारी पुरुष मुहिम में पावन पद पाते देखे, उनके सुंदर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।' पंद्रह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में रामकथा के बालकण्ड की रचना की परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिंकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये। श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई। पार्षद जी ने उन्हीं दिनो 'स्वतन्त्र भारत' कविता लिखी -