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पहले लग रहा था कि कोरोना की यह त्रासदी कुछ समय के लिए है मगर अब लग रहा है कि बच्चों का एक लंबा अरसा घर की दीवारों के बीच बीतेगा
file image of primary school
प्रथामिक स्कूल की फाइल फोटो | विकिमीडिया कॉमन्स
कोरोनावायरस एक त्रासदी है जिससे पूरा समाज मौजूदा वक्त में जूझ रहा है. समाज का शायद ही कोई वर्ग हो जो इसके प्रभाव से अभी अछूता होगा.
समाजीकरण की प्रक्रिया इस पूरी त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है जिसके कारण समाज में कई तरह की उथल-पुथल हुई है. लेकिन इस त्रासदी से सबसे ज्यादा कोई प्रभावित है तो वो है वरिष्ठ नागरिक और बच्चे.
बच्चे जिनको प्रारंभिक अवस्था में एक उन्मुक्त और गतिशील वातावरण की आवश्यकता होती है वह घर की चाहरदीवारों में कैद हो गये हैं. पहले लग रहा था कि यह त्रासदी कुछ समय के लिए है मगर अब लग रहा है कि बच्चों का एक लंबा अरसा घर की दीवारों के बीच बीतेगा.
जो बचपन ज़माने की तमाम दुश्वारियों से बेखौफ पार्कों और आस-पास घूमता था उस पर कोविड-19 का पहरा लग गया है. जब कोविड का प्रकोप शुरू ही हुआ था तो उसी समय स्कूल बंद हो गए मगर अप्रैल आते-आते स्कूलों से नए मेल और फोन आने शुरू हो गए कि अब पढाई ऑनलाइन होगी. कुछ समय के लिए तो यह प्रहसन फिर भी बच्चों ने झेल लिया मगर जुलाई के आते ही फिर से बच्चों के स्कूलों से कक्षाएं शुरू होने के मेल आने लगे. इसके लिए बाकायदा टाइम-टेबल भी बन कर आ गए हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्कूलों को शिक्षकों को वेतन देना है और स्कूलों को फीस लेनी है जिसके कारण उनको लगता है कि कक्षाएं चलाना आवश्यक है क्योंकि बिना कक्षाओं के लोग फीस नहीं देंगे. मगर इन सबके बीच कैसे बच्चों का बचपन पिस रहा है इस पर शायद किसी का ध्यान नहीं है. खेल के मैदान और साथियों से महरूम ये बच्चे कैसे 9 से 2 बजे तक कक्षाएं लेंगे और कैसे अपनी एकाग्रता बनायेंगे, ये एक बड़ा प्रश्न है.
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