please give me essay on vigyan aur Jeevan
in Hindi ..
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विज्ञान और जीवन
आज का युग ज्ञान-विज्ञान सभी प्रकार की प्रगतियों एवं विकास का युग माना गया है। आज का वैज्ञानिक मानव इस धरती पर विद्यमान सभी प्रकार के तत्त्वों को जान चुका है। समुद्र का अवगाहन एवं धरा प्रभाव का दोहन भली प्रकार से कर चुका है। इसी कारण अब उसकी दृष्टि अन्तरिक्ष में विद्यमान अन्य ग्रहों के दोहन एवं अवगाहन की ओर लग रही है। अपनी प्रबल इच्छा एवं सार्थक प्रयत्न से चन्द्रलोक का रहस्य तो उसने पा भी लिया है। उसको उबड़-खाबड़ धरती को छूकर उस पर अपने चरण-चिहन भी अंकित कर दिए है। अन्य कई ग्रह भी अब उसकी दृष्टि की रेंज से, पहुँच से दूर नहीं| आज के मानव – समाज का जीवन, जीवन का कोई कोना वैज्ञानिक प्रगतियों की कहानी कहने से बाकी नहीं बच रहा है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक हम जिन-जिन उपकरणों का प्रयोग करते है। ।, यहाँ तक कि खाना बनाने-खाने के लिए जो साधन काम में लेते है। जो कुछ भी पहनते-ओढ़ते है। वह सब आधुनिक विज्ञान की देन तो है। ही, विज्ञान की प्रगतियों की मुँह-बोलती कहानी भी है। बिजली-पानी, रेडियो-टेलिविजन, बस-रेल, वायुयान, जलयान, पढ़ने-लिखने के सभी तरह के साधन सभी कुछ, तो वैज्ञानिक प्रगति और उपलब्धियों ने परम्परागत युद्ध-सामग्रियों, युद्धक-विधियों को भी एकदम बदल डाला है। खेती-बाड़ी उसमें काम आने वाले यंत्र-उपकरण सभी का वैज्ञानिक मशीनीकरण हो चुका है। बीज और खाद तक, इतना ही नहीं, कहा जा सकता है। कि खेतों की मिट्टी तक पहले वाली नहीं रह गईगलियाँ, सड़कें और रास्ते सभी कुछ बदल कर रख दिया है। इस विज्ञान ने यहाँ तक कि आम जीवन के प्रति ही नहीं, आत्मा-परमात्मा और लोक-परलोक के प्रति भी आज की वैज्ञानिक प्रगति ने हमारी दृष्टि आमूल-चूल बदलकर रख दी है। सो जीवन का भीतर-बाहर सभी कुछ वैज्ञानिक बन कर उस की जय-गाथा अपने मुँह से कह रहा है।
ऊपर हम विज्ञान की जिन प्रगतियों की चर्चा कर आए है। उनसे स्पष्ट है कि उनके अन्त:-बाहर प्रभाव ने जीवन को अपने मूल से ही बदल कर रख दिया है। जहाँ तक बाह्य भौतिक बदलाव का प्रश्न है। निश्चय ही उसे सब प्रकार से उचित ठहराया जा सकता है। पर जहाँ तक आन्तरिक प्रभावों की बात है। उसे निश्चय ही सुखद एवं मानवीय दृष्टि से हितकर नहीं माना जा सकतावैज्ञानिक प्रगति ने मानव का बौद्धिक विकास, वैयक्तिक सजगता इस सीमा तक कर और ला दी है। कि आज मानव हृदयहीन एवं आत्मजीवी बनकर रह गया है। आज मानव इस सीमा तक निहित स्वार्थी, चेतनागत भ्रष्टता का शिकार होकर रह गया है। कि अपने से बाहर देख और सोच पाना उसके बस में कतई नहीं रह गया है। उसका पड़ोसी यदि बीमार होकर या भूखा रह कर मर रहा है। तो बेशक मरे, उसे इस बात की कतई कोई परवाह या चिन्ता नहीं है। हृदयहीनता इस सीमा तक आ चुकी है। कि सामने कोई कट-फट कर तडप और चीख-चिल्ला रहा है। उस ओर मानव के मन जाते ही नहींइसी कारण आज चारों ओर आपाधापी, स्वार्थ और भ्रष्टाचार का राज है। विज्ञान की इस प्रगति ने मानवीय उदात्त-उदार तत्त्वों का सर्वथा लोप कर दिया है। इसमें सन्देह नहीं।