Hindi, asked by user20182, 1 year ago

please help me............

Attachments:

Answers

Answered by suzy7
2
जीवन में उन्नति करने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है, उनमें परिश्रम का मुख्य स्थान है। प्रतिभा को उन्नति का आधार मानने वालों को यह बात न भूलनी चाहिए कि परिश्रम प्रतिभा का पिता है। जिस प्रकार रस्सी की रगड़ से कुँए पर पड़ी शिला पर निशान या चिन्ह बन जाता है। उसी प्रकार परिश्रम से प्रतिभा उत्पन्न होती है परिश्रम के अभाव में प्रतिभा बेकार पड़ी रहती है, पर काम करते-करते योग्यता का विकास हो जाया करता है। “करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान” का सिद्धाँत मात्र सूक्ति ही नहीं, बल्कि यह पुरुषार्थी एवं परिश्रमी व्यक्तियों का अनुभव सिद्ध सत्य है।

संसार में जो भी लौकिक-पारलौकिक विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, वे परिश्रम के आधार पर ही प्राप्त की जा सकती हैं। सम्पत्ति, समृद्धि अथवा सम्पन्नता तीनों परिश्रम एवं पुरुषार्थ की ही अनुगामिनी हैं। संसार में अब तक जो भी उल्लेखनीय व्यक्ति हुये हैं उन्होंने प्रतिभा की अपेक्षा परिश्रम पर अधिक विश्वास किया है। प्रतिभा भी अपना चमत्कार तभी प्रकट कर पाती है जब उसे परिश्रम का सहयोग प्राप्त होता है। नहीं तो संघर्ष के अभाव में अरणी में छिपी आग की तरह प्रतिभा भी मनुष्य के भीतर छिपी-छिपी बेकार बनी रहती है।

बम्बई के वेंकटेश्वर प्रेस एवं प्रकाशन गृह का संस्थापक तथा स्वामी जब मारवाड़ से रोटी-रोजी की तलाश में बम्बई आया था तब उसके पास न प्रतिभा थी और न पैसा। शरीर पर पहने हुये कपड़ों के सिवाय उसके पास और कुछ भी नहीं था। यदि उसके पास कुछ था तो केवल परिश्रमशीलता का ही सम्बल था।

कुछ समय तक बुकसेलर के पास नौकरी करने के बाद मितव्ययिता से बचाये पैसों से छोटी-छोटी पुस्तकें खरीद कर शहर में बेचना शुरू किया। वह युवक सुबह से शाम तक फेरी लगाता रहता था जब तक वह उस दिन की सारी पुस्तकें नहीं बेच लेता था। कुछ ही समय में कन्धे पर किताबों का झोला लटकाये निरन्तर फेरी लगाते हुये उस परिश्रमी युवक को लोग पहचानने और अधिकतर उससे ही पुस्तकें खरीदने लगे। उसके परिश्रम ने लोगों को प्रभावित किया और लोगों ने उसे सहानुभूति दी। धीरे-धीरे वह एक अच्छा पुस्तक विक्रेता बन गया। अपनी दुकान में अथक परिश्रम करते-करते उसने इतना कमा लिया कि अब बड़ी पुस्तकें बेचने तथा छपाने लगा। इस काम में भी उसने इस सीमा तक परिश्रम किया कि उसमें एक अच्छे प्रकाशन की प्रतिभा जाग उठी। निदान उसने अपने परिश्रम के बल पर साहस इकट्ठा कर के अपना स्वयं का प्रेस लगा लिया और धीरे-धीरे इतना विकास किया कि आज भी बम्बई का यह भारत प्रसिद्ध प्रेस तथा प्रकाशन गृह उसके परिश्रम तथा पुरुषार्थ की यशगाथा गा रहा है। उस प्रतिभा तथा पैसे से रहित युवक ने अपने परिश्रम के बल पर दोनों चीजें पाकर अपने जीवन को सफल करके दिखला दिया।

pls tap the button which known as thanks
and hope it helps you.

user20182: Thank you very much
Similar questions