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पुस्तक मेला साहित्य प्रेमियों का सबसे बड़ा त्योहार होता है. नयी किताबों की खुशबू, किताबों को स्पर्श करना, उन्हें उलट-पुलट कर देखना, खरीदना. भूले-बिसरे दोस्तों-परिचितों से मिलना, नये दोस्त बनाना. ओह! कितना मजा आता है इन सबमें. बचपन में पिता के कंधे पर बैठ कर गांव का मेला देखने से बिल्कुल भिन्न लेकिन उतनी ही सुखद अनुभूति. हम साल भर पुस्तक मेले का इंतजार करते हैं. मुझे याद है जब जमशेदपुर में टैगोर सोसाइटी की ओर से पहले पुस्तक मेले का आयोजन हुआ तो मैं खूब उत्साहित थी. और संयोग से उस पुस्तक मेले की अगले दिन जो तस्वीर अखबार में प्रकाशित हुई थी उसमें हम पुस्तक प्रेमी पति-पत्नी प्रमुखता से नजर आ रहे थे. तब उम्र कम थी और अखबार में फ़ोटो देख कर रोमांच हुआ था. कटिंग काफ़ी दिन तक संभाल कर रखी. खूब किताबें खरीदी, कई दिन मेले में घूमते रहे. फ़िर यह सालाना जलसा अब तक जारी है. जमशेदपुर पुस्तक मेले पर फ़िर कभी और. अभी तो मैं दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला 2018 घूमने जा रही हूं. असल में मैं तो घूम आई, अब उसे दर्ज कर रही हूं. तो ऐसा है कि 2008 से विश्व पुस्तक मेले में जाना हो रहा है. उस बार मेरी पहली पुस्तक ‘अपनी धरती अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ संवाद प्रकाशन से आई थी. और इस बार जब मेले में प्रवेश किया तो सबसे पहले संवाद प्रकाशन के आलोक श्रीवास्तव से ही टकराई. संवाद ने विश्व साहित्य को कम दर पर हिंदी के पाठक को उपलब्ध कराया है. बीच में ‘अहा! जिंदगी’ के कारण संवाद प्रकाशन का काम तकरीबन स्थगित रहा. आलोक श्रीवास्तव ने बताया कि अब वे पूरे जोर-शोर से संवाद के काम में फ़िर से जुटने वाले हैं. वहां से निकली तो कृष्ण मूर्ति फ़ाउंडेशन के स्टॉल पर मुकेश जी मेरा इंतजार कर रहे थे. उन्हें मेरे पेन ड्राइव से कुछ फ़िल्में लेनी थीं. उनके लिए कैरा नाइटली वाली ‘अन्ना कैरेनीना’, चार्ली चैपलीन की ‘मॉर्डर्न टाइम’ तथा एक मलयालम फ़िल्म ‘बुक ऑफ़ जॉब’ ले कर गई थी. तकनीक ने फ़िल्म देखना, उसे इधर-उधर ले जाना, आदान-प्रदान करना सुलभ कर दिया है. पहले मेला फ़रवरी में लगता था हम दूर-दराज के लोग किसी तरह पहुंच जाते थे. लेकिन पिछले दो साल से जनवरी में लग रहा है अत: कोहरा रेल का काफ़ी समय खा जाता है. इस बार भी 12 जनवरी जब मुझे मेले में होना था, मैं ट्रेन में थी. सुबह साढ़े दस बजे दिल्ली पहुंचना था रात को दस बजे पहुंची. अनघा बैंग्लोर से उड़ कर दोपहर से गांधी शांति प्रतिष्ठान (जहां हमें ठहरना था) में मेरा इंतजार कर रही थी. बहन ने पूछा, तुम्हें स्टेशन से लेती चलूं मगर मैं ट्रेन में थी और वह इंतजार करके गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंच गई. शुक्र है ट्रेन वालों ने चावल-दाल खाने को दिया वरना राजधानी एक्सप्रेस में उपवास करने के अलावा कोई चारा न था