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हिन्दी स्वयंप्रभा है. वह सत्ता की नहीं जनता की भाषा है और व्यापक जनसमर्थन से संपन्न है. अहिंदी भाषी राज्यों के हिंदी विरोधी तथाकथित राजनेताओं के दुराग्रह पूर्ण भाषण भले ही उनके थोड़े से क्षेत्र में हिंदी के प्रसार की गति धीमी कर लें किंतु विश्व-स्तर पर उसके बढ़ते पगो को थामने की सामर्थ्य उनमें नहीं है.मनुष्य के जीवन की भांति समाज और राष्ट्र का जीवन भी सतत विकासमान प्रक्रिया है . इसलिए जिस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में सही-गलत निर्णय लेता हुआ लाभ-हानि के अवसर निर्मित करता है और सुख-दुख सहन करने को विवश होता है उसी प्रकार प्रत्येक समाज और राष्ट्र भी एक इकाई के रूप में अपने मार्गदर्शक-सिद्धांत और नीतियां निर्धारित करता हुआ लाभ-हानि का सामना करता है . मनुष्य और समाज दोनों को ही समय≤ पर अपनी नीतियों-रीतियों का उचित मूल्यांकन करते रहना चाहिए.…