Hindi, asked by nishi373, 5 months ago

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Answered by nanditapsingh77
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संत कबीर दास हिंदी साहित्य के आदिकाल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे. वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है.

मौजूदा समय के कवि-साहित्यकार भी इससे पूरा इत्तेफाक रखते हैं. कवि प्रेम जनमेजय ने कहा, ‘कबीर दास आस्था के विरोधी नहीं थे, लेकिन वह निराकार ईश्वर को स्वीकार करते थे. वह धर्म और परंपराओं के नाम पर किये जाने वाले आडंबरों से सहमत नहीं थे.’

कबीर के जन्म को लेकर किसी स्पष्ट तिथि का पता नहीं, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म 15 जून, 1440 को वाराणसी में हुआ. नीरू और नीमा नामक मुस्लिम दंपत्ति ने उन्हें पाया था और उन्हें कबीर नाम दिया. शुरुआत में कबीर ने बुनकरी के पारिवारिक पेशे में मन लगाया, लेकिन बाद में उनका ध्यान साधुवाद की ओर बढ़ता चला गया.

वाराणसी के संत रमानंद के शिष्य बनने के बाद वह बतौर संत स्थापित हुए. उनकी धार्मिक मान्यता को लेकर लंबे समय तक मतभेद बना रहा. कुछ लोग उन्हें जन्म से हिंदू करार देते हैं तो कइयों का मानना है कि साधुवाद की ओर उनका रुझान संत रमानंद से मिलने के बाद हुआ. माना जाता है कि कबीर ने 1518 में नश्वर शरीर छोड़ दिया.

कबीर ने मुसलमान और हिंदू दोनों समुदाय के बीच आडंबरों पर कटाक्ष किया. उन्होंने हमेशा निराकार ईश्वर की उपासना की पैरवी की. इसी सदंर्भ में उनका एक दोहा काफी प्रचलित है- ‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजै पहार .

वा ते तो चाकी भली पीस खाय संसार ..’ आदिकाल के निगरुण शाखा के इस प्रतिनिधि कवि ने गुरु को ईश्वर से भी उंचा बताया. उन्होंने एक दोहे के माध्यम से इसका बखान किया.

‘गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय.

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ..’ कवि धनंजय सिंह कहते हैं, ‘कबीर ने गुरु को सर्वश्रेष्ठ माना. उन्होंने सतगुरु की कल्पना की थी. वह ऐसे गुरु की बात कर रहे थे, जिसमें कोई दोष न हो.’’ कबीर के काव्य में आध्यात्म और यथार्थ दोनों की झलक मिलती है.

कवि जनमेजय का कहना है, ‘कबीर के काव्य की यही सबसे बड़ी विशेषता है. वह आध्यात्म के साथ ही यथार्थ को बयां करते हैं. उनका काव्य आज के समय में भी प्रासंगिक है.’

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Answered by ManTTaniha
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For question (4) :- (poem)

भला किसी का कर ना सको तो, बुरा किसी का ना करना ।

पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बन कर मत रहना ॥

सदाचार अपना न सको तो, पापों में पग ना धरना ।

पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बन कर मत रहना ॥

सत्य वचन ना बोल सको तो, झूठ कभी भी मत बोलो ।

मौन रहो तो ही अच्छा, कम से कम विष ना घोलो ॥

बोलो यदि पहले तुम तोलो, फिर मुंह को खोला करना ।

पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बन कर मत रहना ॥

घर ना किसी का बसा सको तो, झोपड़ियां ना जला देना ।

मरहम पट्टी कर ना सको तो, खार नमक ना लगा देना ॥

दीपक बन कर जल ना सको तो, अंधियारा ना फैला देना ।

पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बन कर मत रहना ॥

अमृत पिला ना सके किसी को, ज़हर पिलाते भी डरना

धीरज बंधा नहीं सको तो घाव किसी के मत करना ॥

पुष्प नहीं बन सकते तो तुम, कांटे बन कर मत रहना ॥

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