please write the famous poem "जब जब मानव ज़ोर लगाता"
by one of the most prominent poet in Indian history shri Ram Dhari Singh Dinkar Ji
Answers
Answered by
6
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।”
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है ,
1.विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।
2.मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
3.है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
4.गुन बड़े एक से एक प्रखर
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
thnx...... (but its copied)
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है ,
1.विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।
2.मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
3.है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
4.गुन बड़े एक से एक प्रखर
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
thnx...... (but its copied)
Anonymous:
:-)
Answered by
6
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटो में राह बनाते हैं।
मुंह से न कभी उफ् कहते है,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – नीरज नित रहते हैं,
शूलों का फूल नहाते हैं,
वह खुद विपत्ति परछाते हैं ।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में ?
खम ठोंक खेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है ।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहंदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है ।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
Similar questions