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yes
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सामाजिक परिवर्तन, समाज के आधारभूत परिवर्तनों पर प्रकाश डालने वाला एक विस्तृत एवं कठिन विषय है। इस प्रक्रिया में समाज की संरचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके अन्तर्गत मूलतः प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है।
आधुनिक संसार में प्रत्येक क्षेत्र में विकास हुआ है तथा विभिन्न समाजों ने अपने तरीके से इन विकासों को समाहित किया है, उनका उत्तर दिया है, जो कि सामाजिक परिवर्तनों में परिलक्षित होता है। इन परिवर्तनों की गति कभी तीव्र रही है कभी मन्द। कभी-कभी ये परिवर्तन अति महत्वपूर्ण रहे हैं तो कभी बिल्कुल महत्वहीन। कुछ परिवर्तन आकस्मिक होते हैं, हमारी कल्पना से परे और कुछ ऐसे होते हैं जिसकी भविष्यवाणी संभव थी। कुछ से तालमेल बिठाना सरल है जब कि कुछ को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कुछ सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट है एवं दृष्टिगत हैं जब कि कुछ देखे नहीं जा सकते, उनका केवल अनुभव किया जा सकता है। हम अधिकतर परिवर्तनों की प्रक्रिया और परिणामों को जाने समझे बिना अवचेतन रूप से इनमें शामिल रहे हैं। जब कि कई बार इन परिवर्तनों को हमारी इच्छा के विरुद्ध हम पर थोपा गया है। कई बार हम परिवर्तनों के मूक साक्षी भी बने हैं। व्यवस्था के प्रति लगाव के कारण मानव मस्तिष्क इन परिवर्तनों के प्रति प्रारंभ में शंकालु रहता है परन्तु शनैः उन्हें स्वीकार कर लेता है। वध दल
अनेक समतावादी आंदोलनों में शिरकत कर चुके थे। उनका लोगों पर प्रभाव था। इसलिए सरदार जगदेव सिंह द्वारा संगठन के प्रस्ताव पर दोनों ने अपनी तत्क्षण सहमति दे दी। गंगा, यमुना, सरस्वती की त्रिवेणी के आधार पर उसे नाम दिया गया—‘त्रिवेणी संघ।’ उसके लिए आदर्श वाक्य चुना गया—‘संघे शक्ति कलयुगे।’ इस तरह 30 मई 1933 को बिहार के शाहाबाद जिले की तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों यादव, कोयरी और कुर्मी के नेताओं क्रमशः सरदार जगदेव सिंह, यदुनंदन प्रसाद मेहता और शिवपूजन सिंह ने ‘त्रिवेणी संघ’ की नींव रखी। कुछ इतिहासकार उसका गठन 1920 से मानते हैं।
shivpujan-singh शिवपूजन सिंह
आगे की लड़ाई और भी चुनौतियों से भरी थी। ‘त्रिवेणी संघ’ के गठन से पहले तीनों नेता कांग्रेस में सक्रिय थे। उस समय कांग्रेस भारत की समस्त जनता की प्रतिनिधि होने का दावा करती थी, परंतु प्रांत-भर में लगभग सभी राजनीतिक पदों पर सवर्णों का कब्जा था। पिछड़ों को राजनीति से दूर रखने के लिए उन्हें तरह-तरह से हतोत्साहित किया जाता था। उनके लिए चुनावों में हिस्सा लेना आसान भी नहीं था। पूरा समाज सामंतवाद और कुलीनतावाद की जकड़ में था। जिला बोर्ड का चुनाव वही लड़ सकता था जो न्यूनतम 64 रुपये सालाना मालगुजारी का भुगतान करता हो। जबकि बिहार की कुल आबादी के मात्र 0.06 प्रतिशत लोगों की आमदनी ही कर-योग्य थी। इस तरह ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर और कायस्थ का आर्थिक साम्राज्यवाद, राजनीतिक साम्राज्यवाद का पूरक और परिवर्धक बना हुआ था। पिछड़ी जाति के नेता कांग्रेस के पास टिकट मांगने जाते तो उनकी खिल्ली उड़ाई जाती थी।
पृष्ठभूमि
‘त्रिवेणी संघ’ के गठन में हालांकि तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों का हाथ था, मगर योजना सभी पिछड़ी जातियों को साथ लेकर चलने की थी। दबंग जातियों द्वारा गरीब दलित और पिछड़ी जाति की महिलाओं का यौन शोषण उन दिनों सामान्य बात थी। त्रिवेणी संघ ने बेगार और महिलाओं के यौन शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। 1937 में विधान सभा चुनावों से पहले टिकट की कामना के साथ संघ के प्रतिनिधि कांग्रेसी नेताओं से मिले। कुछ दिनों बाद उन्होंने डा. राजेंद्र प्रसाद से भी संपर्क किया। सभी ने उन्हें टिकट का आश्वासन दिया। लेकिन हुआ वह जो पहले से तय था, ‘कांग्रेस ने एक न सुनी और सब उम्मीदवार उच्च जातियों के रखे गए.’ (त्रिसबि) कांग्रेसी नेताओं की चालाकी का खुलासा यदुनंदनप्रसाद मेहता ने अपनी पुस्तिका ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में किया है—‘पहले ऐलान किया गया कि योग्य व्यक्तियों को लिया जाएगा। जब इन बेचारों ने योग्य व्यक्तियों को ढूंढना शुरू किया तो कहा गया कि खद्दरधारी होना चाहिए। जब खद्दरधारी सामने लाए गए तो कहा गया कि जेल यात्रा कर चुका हो। जब ऐसे भी आने लगे तो कहा गया कि वहां क्या साग-भंटा बोना है….किसी को कहा जाता कि वहां क्या भैंस दुहनी हैं? तो किसी को व्यंग्य मारा जाता कि वहां क्या भेड़ें चरानी हैं?….किसी को यह कहकर फटकार दिया जाता कि वहां क्या नमक-तेल तौलना है!’(त्रिसबि) निराश होकर त्रिवेणी संघ ने अपने प्रतिनिधि खड़े करने का निश्चय किया। किंतु संसाधनों और अनुभव की कमी तथा अपने ही लोगों की कांग्रेसी नेताओं के साथ मिली-भगत के उसके प्रतिनिधि चुनावों में अपेक्षित सफलता अर्जित न कर सके।
yadunandan-prasad-mehta यदुनंदनप्रसाद मेहता
‘त्रिवेणी संघ’ के नेता परंपरागत धर्म के विरोध में नहीं थे। तथापि उसकी आचारसंहिता पर सोवियत क्रांति के