Hindi, asked by MAYAKASHYAP5101, 1 year ago

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Answered by arc555
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वही जीते है जो दूसरो के लिए जीते है अर्थात मनुष्यता की भलाई के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर देने वाले को ही सच्चा मनुष्य कहा जा सकता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है महाकवि ने अपनी इस सूक्ति में! अपने लिए तो सभी जी या मर लिया करते हैं। पशु-पक्षी अपने लिए जीते हैं। कुत्ता भी द्वार-द्वार घूम अपने रोटी जुटाकर और पेट भर लेता है। अत: यदि मनुष्य भी कुत्ते या अन्य पशु-पक्षियों के समान केवल आत्मजीवी होकर रह जाए, तो फिर पशु-पक्षी और उसमें अंतर ही क्या रह गया? फिर मनुष्य के चेतन, बुद्धिमान भावुक होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। नीतिशास्त्र की एक कहावत है 


आधुनिक संदर्भों में बड़े खेद के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि आज का मनुष्य निहित स्वार्थी और आत्मजीवी होता जा रहा है। इसी का यह परिणाम है कि आज चारों ओर आपधापी, खींचातानी, अनयाय, अत्याचार ओर अविश्वास का वातारवरण बनता जा रहा है। कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं पाता। इसे पशुता का लक्षण ही कहा जाएगा। आज सारे जीवन और समाज में पशु-वृत्तियों का जोर है। परंतु न तो हमेश ऐसा था, न रहेगा ही। भौतिकता की चमक-दमक के कारण आज मानवीय वृत्तियां मरी तो नहीं पर दब अवश्य गई है। अपनी ही रक्षा के लिए हमें उन्हें फिर से जगाना है, ताकि मानवता फिर से जागृत होकर अपने और कवि द्वारा बताए गए इस आदर्श का निर्वाह फिर से कर सके कि :
इस भावना की जागृति में ही हमारा और सारी मानव-जाति का मंगल एंव कल्याण है। जितनी तत्परता से इस भावना को जागृत कर लिया जाए, उतना ही शुभ एंव सुखद है। व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकर है।
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