Social Sciences, asked by thakursavita568, 8 months ago

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Answered by chiragkamra2002
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Answered by rajnish2003
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पर्यावरण संरक्षण

भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण को बहुत महत्त्व दिया गया है। यहाँ मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी, वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है। पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का वातावरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के वातावरण को संरक्षित करें तथा उसे जीवन के अनुकूल बनाए रखें। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।

भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ पर्यावरण संरक्षण का भाव अति पुरातनकाल में भी मौजूद था पर उसका स्वरूप भिन्न था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करने वाली संस्थाएँ नहीं थीं। पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रियाकलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालीदास, दाण्डी, पंत, प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है।

भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।

जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार सन्तुलन बनाए रखने हेतु 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिये समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भाँति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का सन्तुलन बना रहे।

सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राज-चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।

वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों। ये शान्तिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है। पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अन्त दिखाई दे रहा है।

प्रकृति के साथ अनेक वर्षों से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है। विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधों और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गन्दी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपने धरती और अपने पर्यावरण की ठीक-ठीक देखभाल नहीं की।

अब इससे होने वाले संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव के समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राणी मात्र पर समान रूप से पड़ रहा है। आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं। सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रकृति के शोषण को निरन्तर बढ़ावा दिया है। पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना है।

हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार वायु, जल एवं मृदा आज खतरे में हैं। सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ आम बात हो गई है।

वायु प्रदूषण के लिये वाहन भी कम उत्तरदाई नहीं हैं। बसों, कारों, ट्रकों, मोटर-साइकिलों, स्कूटर, रेलों आदि सभी में पेट्रोल अथवा डीजल ईंधन के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। इनसे भारी मात्रा में दम घोंटने वाला काला धुआँ निकलता है, जो वायु को प्रदूषित करता है। डीजल वाहनों से जो धुआँ निकलता है उनमें हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन एवं सल्फर के ऑक्साइड तथा सूक्ष्म कार्बन-युक्त कणिकाएँ मौजूद रहती हैं। पेट्रोल चलित वाहनों के धुएँ में कार्बन मोनो-ऑक्साइड व लेड मौजूद होते हैं। लेड एक वायु प्रदूषक पदार्थ है। डीजल एवं पेट्रोल चालित वाहनों में होने वाले दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भी उत्पन्न होती है जो सूर्य के प्रकाश में हाइड्रोकार्बन से मिलकर रासायनिक धूम कुहरे को जन्म देते हैं।

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