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इस कविता में वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेश में पल-पल में परिवर्तित होते सौंदर्य की मनोरम झांकी प्रस्तुत की गई है lइसमें कवि ने पर्वत, तालाब ,झरने,बादल आदि पर मानवीय भावों का आरोप किया है lअतः मानवीय कर्ण का प्रयोग हुआ है l विशालकाय पर्वत तालाब में अपनी प्रतिबिंब निहारता हैl झरने उसके गौरव का गान करते हैं बादल lपर्वत को ढक लेते हैं और पर्वत दृष्टि से ओझल हो जाता हैl तालाब से उठते कोहरे को देखकर लगता है कि मानव तालाब में आग लग गई हैl यह सारा दृश्य एक जादू के समान प्रतीत होता है इंद्र नभयान पर सवार होकर इस प्रकार के खेल खेलता रहता हैl
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