poem on school please tell me
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तब देर रात गए एक पागल तान
अँधेरे के साँवर कपोलों पर फेनिल स्पर्श करती थीं
बसंती झकोरों में मदहोश एक-एक पत्तियाँ
लयबद्ध नाचती थीं
जंगल में बजते थे घुँघरू
चाँद चला आता था तकिए के पास
कहने को कोई एक गोपनीय बात
नींद खुलती थी पूरबारी खिड़की से चलकर
सुबह का सूरज सहलाता था गर्म कानों को
और माँ के पैरों का आलता
फैल जाता था झनझन पूरे आँगन में
तब पहली बार देखी थी मैंने
नदी की उजली देह
भर रही थी मेरी साँसों में
पहली बार ही
झँवराए खेतों की सोंधी-सोंधी हँसी
दरअसल वह ऐसा समय था
कि एक कविता मेरी मुट्ठी में धधकती थी
मैं भागता था
घर की देहरी से गाँव के चौपाल तक
सौंपने के लिए
उसे एक मासूम-सी हथेली में
सूरज डूबता था
मैं दौड़ता था
रात होती थी
मैं दौड़ता था
अंततः हार कर थक गया बेतरह मैं
अपनी स्कूल की डायरी में लिखता था एक शब्द
और चेहरे पर उग आई लालटेन को
काँपते पन्नों में छुपा लेता था ।
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