pradhanya charya shrimati Jyoti gupta , lovely public school, delhi ki aur se 'shiksha sabka adhikar ' yojna ke antargat aur anath bacho ke pravesh ki suchna ki prayapt jankari dijiye
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Explanation:
आर.टी.आई. कानून ने सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के नये दरवाजे खोल दिये। आम आदमी मात्र 10 रूपये शुल्क देकर सरकारी दफ्तर की नस्तियों की प्रतियां हासिल कर सकता है। इस कानून ने आम आदमी को विधायकों और सांसदों के आंशिक अधिकार दे दिये। इसी सूचना के अधिकार के कारण अनेक सरकारी अफसरों और मंत्रियों को भी जेल की हवा खानी पड़ी। इसी अधिकार के कारण देश भर में हलचल मचा देने वाला 2जी घोटाला सामने आया। घोटाले की सी.बी.आई. जांच हुई, केन्द्रीय मंत्री ए.राजा सहित सांसद कनिमोझी और अनेक अधिकारी पकड़े गये। इसी आर.टी.आई. ने मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले को उजागर किया, उड़ीसा के केरोसिन घोटाले को उजागर किया, बैंगलुरू के महापौर फण्ड में घोटाले की परतें खोली। इसी आर.टी.आई. ने मध्यप्रदेश में व्यापम और पी.एस.सी. जैसे महाघोटाले का भण्डाफोड़ किया जिसने व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने की हसरत रखने वाले राज्य के हजारों छात्र-छात्राओं के भविष्य को बर्बाद कर दिया तथा कई नवयुवकों को योग्यता के बावजूद सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया। अर्थात कहा जा सकता है कि सूचना के अधिकार ने सार्वजनिक क्षैत्र में काम करने वाली संस्थाओं/व्यक्तियों को कामकाज में पारदर्शिता लाने को काफी हद तक विवश किया है और इसके परिणाम अब साफ-साफ दिखाई भी देने लगे हैं।
बढ़ते वैश्वीकरण के दौर में भारत ने भी 1990 के बाद से आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाया है और हम काफी हद तक इस दिशा में आगे बढ़ चुके है। सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश बढ़ा है तथा सरकार ने उन क्षेत्रों में निजी कंपनियों को काम करने की छूट दी है जिनपर कभी सिर्फ सरकार के अधिकार हुआ करते थे। आज स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क परिवहन, नागरिक विमानन, खनन, दूरसंचार, सूचना एवं प्रसारण सहित अनेकानेक क्षेत्रों में निजी उद्यमियो का बोलबाला है। शिक्षा, स्वास्थ्य और संचार के क्षेत्र में तो निजी कंपनियों ने सार्वजनिक संस्थाओं को गुणवत्ता और प्रसार दोनों में ही काफी पीछे छोड़ दिया है। निश्चित रूप से यह अच्छी बात भी है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के कारण प्रतियोगिता बढ़ी है जिसके फलस्वरूप रोजगार बढ़ा है। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये निजी क्षेत्र में गुणवत्तावृद्धि और प्रसार दोनो ही स्वाभाविक रूप से होते है। लेकिन मैं इस लेख के माध्यम से इसी उदारीकरण में, विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में छिपे उस भयावह सच की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जिसे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सब जानते है किन्तु फिर भी कोई इस पर जुबान नही खोलता। हो सकता है, इसमें इन सबके हित सधें हो किन्तु आम जनता इसमें जरूर मारी जा रही है।
यहां सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की बात की जा रही है। स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आज देश भर में हजारों निजी संस्थान खुल गये है। प्रतिस्पर्धा के दौर में प्रत्येक संस्थान अधिक छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये पृथक-पृथक तरीके अपनाते है। लेकिन कुछ ही संस्थान बच्चों को बेहतर शिक्षा और उच्च जीवन मूल्यों के उद्धेश्य को लेकर काम कर रहे है। अधिकांश शिक्षण संस्थानों में व्यवसायिक दृष्टिकोण प्रमुख है तथा उनकी पहली प्राथमिकता पैसा है बाकी सब दूसरी। भारत सरकार द्वारा लाये गये शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत यद्यपि निजी स्कूलों में गरीब वर्ग के बच्चों के लिये सीटें सुरक्षित हुई है तथा मजबूरी में ही सही, लेकिन अच्छे निजी स्कूलों में गरीब बच्चों को भी प्रवेश दिया जा रहा है। फिर भी इस व्यवस्था में बहुत सी खामियां है। निजी शिक्षण संस्थानों में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी नही ली जा सकती। ऐसी स्थिति में ये संस्थान निजी स्वार्थ के लिये सरकार की योजनाओं को किसी न किसी सीमा तक अवश्य ही नाकाम करने में सफल हो जाते है। लेकिन इससे भी अधिक भयंकर और खतरनाक स्थिति निजी क्षेत्र में चल रहे व्यावायिक और उच्च शिक्षा संस्थानों में है। उदाहरण के तौर पर अगर देखा जाये तो मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में ही निजी क्षेत्र के लगभग 250 इंजीनियरिंग कॉलेज है। लगभग इतने ही फार्मेसी, प्रबंधन, विज्ञान तथा अन्य संकायों के भी कॉलेज है। निजी क्षेत्र में सूचना का अधिकार लागू नही होने के कारण इन संस्थाओं से जानकारी प्राप्त करना आम जनता के लिये नामुमकिन है।
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