prakiti ka sandesh who is written by?
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छू रहा आसमान हूं
नदी में कंकड़ गिराता,
क्यूँ इतना नादान हूं
ठंडी हवा की ये लहरें
यूँ ऐसी इठला रही।
लहराते देवदार तरु को
कुछ तो है बतला रही।
नदियों की कलकल ध्वनि में,
जीवंतता का संदेश है।
बढ़ते रहो पथिक सदैव,
मार्ग अभी भी शेष है।
देखो इस इतराते जलप्रपात को
गिरने का भी अभ्यास है,
पर्वत ने जो इसको है त्यागा,
कर रहा उसका ही परिहास है।
पहाड़ सी समस्या यदि कभी,
मार्ग में उत्पन्न अवरोध करे,
शांत चित्त मन मस्तिष्क ही
समाधान का बोध करे।
हिम शिखर उल्लसित है आज,
अपनी इस धवलता पर।
कभी धूसर रंग में लिपटा,
शोक करेगा उष्णता पर।
नदी दौड़ रही है बेख़बर,
जाने क्या- क्या पाने को ।
लेकिन अंत में होगा सागर,
उसके अस्तित्व को मिटाने को ।
मुक्त हों अतीत की बेड़ियों से,
आज ही उत्सव मनाएँ।
नाचें गाएँ मुस्कराए,
अदृश्य कल का द्वन्द मिटाएँ ।
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