Prathmik anukram aur dwitiya anukram kya hai
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प्राथमिक और द्वितीयक समूह के बीच अंतर सिर्फ आकार भर का नहीं है, बल्कि समूह के अंतर्गत सदस्यों के संबंध के स्वरूप का भी है।
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प्राथमिक समूह की अवधारणा का जिक्र सर्वप्रथम सीएच कूली ने अपनी पुस्तक सोशल ऑर्गनाइजेशन (१८09) में किया।
उनके अनुसार- प्राथमिक समूहों से हमारा तात्पर्य उन समूहों से हैं, जिनमें सदस्यों के बीच आमने सामने घनिष्ठ संबंध होते हैं। साथ ही पारस्परिक सहयोग इसकी अनिवार्य विशिष्टता होती है। एेसे समूह अनेक अर्थों में प्राथमिक होते हैं, विशेष रूप से इस अर्थ में कि ये व्यक्ति के सामाजिक स्वभाव और विचार के निर्माण में बुनियादी यानी प्राथमिक योगदान देते हैं।
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