"Pul bani thi ma " kavitha ka parijay dethe hue tippani likho
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समकालीन हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर श्री.नरेन्द्र पुंडरीक की एक सुन्दर कविता है" पुल बनी थी माँ । इसमें अनाथ होने बुढापे की आहें समाहित किए गए हैं।
कविता की पहली पंक्तियाँ यह बताती है कि माँ के हाथों में हम कितने सुरक्षित हैं। माँ प्रेम रूपी, सुरक्षा रूपी पुल बनती है और उस पर उनका जीवन भी सुरक्षित बेरोकटोक चलता रहता है। हरी-लाल बत्ती का उल्लेख इसका सूचक है कि माँ की छाया में इस तरह के नियमों का ही परवाह नहीं करना पड़ता है , क्योंकि उसकी तेज़ आँखें हम पर हैं और इसलिए यहाँ नियमों का पालन की भी आवश्यकता नहीं है। जैसे जैसे बेटे बढ़ते हैं और माँ बूढ़ी हो जाती है तब चिंता की दिशा में भी बदलाव आता है ।
बूढ़ी माँ की बात भी मानने लायक नहीं लगता । उनके विचार में तो वे सशक्त हैं ,पूर्ण हैं इसलिए बूढ़ों की बातें मानने की आवश्यकता नहीं है। इसी क्षण से शुरू होता है बूढ़े की बुरी हालत । माँ के सहारे लेकर चलनेवाले बेटों को माँ का संरक्षण बोझ बन जाता है । अब तक गर्व से सशक्त कहनेवाले उनको माँ का संरक्षण बहुत कठिन हो जाता है। अंत में वे उस भार को एक दूसरे के कंधों पर लादते हैं। प्रेम की मूर्ति माँ यह सह नहीं सकती। वे बच्चों की मुसीबत समझकर स्वयं बिछुड़ती हैं। यानी ईश्वर के घर चली जाती हैं। माँ के चले जाने के बाद बेटे यह पहचानते हैं कि माँ के बिना वे बेसहारे हैं।
वर्तमान संदर्भ में यह कविता अधिक प्रासंगिक है । 'भोगे और फेंको' संस्कृति के गुलाम होती रही नई पीढ़ी को माता-पिता बोझ बन जाते हैं। उन्हें एक ही विचार है कि इस बोझ को किसी न किसी रूप में छोड दें। इसलिए ही हमारे समाज में वृद्ध मंदिरों की संख्या बढती जा रही है। निश्चय ही यह कविता हमें एक बार फिर सोचने के लिए बाध्य बना देती है।
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पुल बनी थी माँ : बदलते पारिवारिक संबंधों की आलोचनाकविता ‘पुल बनी थी माँ’ बूढ़े-बुजुर्गों के प्रति उत्तरदायित्वों से विमुख होती जा रही नई पीढ़ी के व्यवहार को दर्शाता है। कविता में माँ के पुल होने और पुल से बोझ बनने की हालत पर चर्चा की गई है।माँ भाइयों के बीच पुल बनी थी। पुल दो किनारों को आपस में जोड़ता है। माँ परिवार के हर सदस्य को आपस में जोड़नेवाली कड़ी रही। इस माँ रूपी पुल से बच्चों की जिंदगी रूपी रेल गाड़ी बेरोकटोक चलती रही। पिता के चल बसने के बाद भी भाइयों के बीच माँ पुल बनी रही। माँ धीरे-धीरे टूटने लगी। यानी मानसिक रूप से वह धीरे-धीरे कमज़ोर होती गई। उसके शरीर पर बुढ़ापे का असर दिखने लगा। वह शारीरिक रूप से भीकमज़ोर होने लगी थी। एक ही बात को माँ बार-बार कहने लगी। बच्चे इस आदत को उनके बढ़ते हुए बुढापे की निशानी मानकर जीने लगे। उसकी आवाज़ कमज़ोर होती रही। वह धीरे-धीरे दुर्बल होती रही।बच्चों के प्रति प्यार और दुलार से रहनेवाली माँ एक दिन बच्चों के आश्रय में आ गईं। धीरे-धीरे बच्चों के सशक्त कंधों में माँ बोझ बन गईं। जब तक बूढ़ी माँ जीवित रही, बच्चे माँ की देखरेख की ज़िम्मेदारी एक दूसरे के कंधों पर डालते रहे। सारी जिंदगी बच्चों के लिए जीनेवाली माँ बुढ़ापे में बच्चों के लिए भार बन गई। पर माँ का मातृत्व बच्चों की इस कठिनाई को सह नहीं पाया। वह स्वयं उनके कंधों से उतर गई मतलब उसका अंतिम प्रयाण हो गया। माँ के अभाव में बच्चे बेसहारे बन गए। कविता में प्रयुक्त शब्द, कथन और मुहावरे- वृषभ कंधा, कंधा बदलना, उतर गए कंधे आदि कविता को और सशक्त बनाया है।