India Languages, asked by Amitmishra1912, 1 year ago

Purush Pradhan samaj mein Nari ka Sangharsh

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Answered by ranbirshukla
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वेद-वेदांतर से हमें ऐसे प्रमाण मिलते रहते हैं, जिनमें नारी के सामाजिक स्तर की अभ्यर्थना की गई है । प्रकृति स्वरूपा नारी को ईश्वरीय शक्तियों के रूप में स्थान मिला है । कभी ज्ञान दायिनी के रूप में ‘सरस्वती’ वैभवदायिनी के रूप में ‘लक्ष्मी’ तो कभी शक्ति के रूप में ‘चंडी’ का रूप धारण कर नारी ने सर्वत्र पूज्य परमशक्ति के रूप में अपना स्थान बनाया । धर्मवेत्ता तथा महान् आचारशास्त्री ‘मनु’ के अनुसार-

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ।‘

प्राचीन कालीन भारतीय समाज में ‘नारी’ केवल आदर की पात्र ही नहीं थीं, वरन् उसे भी पुरुषों के साथ बराबर का स्थान प्राप्त था । चाहे कानून के तराजू पर या प्रथाओं- परंपराओं के मानदंड पर ही परखें, भारतीय नारी में बौद्धिक क्षमता, कार्य-कौशल, वाक्पटुता आदि सभी दृष्टियों से पुरुषों के समकक्ष समझा जाता था ।

ऋग्वैदिक सूक्तों तथा श्लोकों के रचनाकारों में भी गार्गी, मैत्रेयी, अरुंधती, सीता, साधव, उर्वशी, देवयानी, सारंगा, इंद्राणी आदि ब्रह्मबंदिनियों का नाम उल्लेखनीय है । मुनि-महात्माओं की तरह ये नारियाँ भी सामाजिक, धार्मिक तथा आचार-व्यवहार की नियंता थीं ।

नारी-शिक्षा भी आधुनिक नहीं वरन् प्राचीन काल से ही बालक-बालिकाओं के सह-शिक्षा का सर्वत्र प्रचलन था । इस कथन की पुष्टि वाल्मीकि मुनि के आश्रम में पड़े-लव-कुश के साथ एत्रेयी के शिक्षा ग्रहण करने से स्पष्ट होती है ।

ऋग्वेद में भी महिलाओं को सामाजिक स्तर पर सर्वोच्च स्थान दिया गया है । वैसे तो ‘विवाह’ को जीवनपर्यत ‘अटूट बंधन’ माना जाता था, फिर भी विधवाओं को अपने ‘देवर’ या अन्य व्यक्ति, जो उसका पाणिग्रहण करे, के साथ पाणिग्रहणोपरांत अकेलेपन के दुःख को सुख में परिवर्तित कर लेने का पूर्ण अधिकार था ।

यथा- ‘को वां शयुत्रा विधवेव देवरभर्यम न योषा कृणुते सधस्थ आ: ।’ प्राचीन काल में प्रचलित ‘स्वयंवर विवाह प्रथा’ से यह प्रमाण मिलता है कि उस समय ‘बालविवाह’ जैसी कुरीतियाँ नहीं थीं वरन् स्वयंवर द्वारा नारी को स्वयं एक योग्य पति चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी ।


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