Pustak ki atmakatha essay in hindi of pustak ki atmakatha
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Dear,
मैं पुस्तक हूँ । जिस रूप में आपको आज दिखाई देती हूं प्राचीन काल में मेरा यह स्वरूप नही था । गुरु शिष्य को मौखिक ज्ञान देते थे । उस समय तक कागज का आविष्कार ही नहीं हुआ था । शिष्य सुनकर ज्ञान ग्रहण करते थे ।
धीरे-धीरे इस कार्य में कठिनाई उत्पन्न होने लगी । ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया । तब ऋषियों ने भोजपत्र पर लिखना आरम्भ किया । यह कागज का प्रथम स्वरूप था ।
भोजपत्र आज भी देखने को मिलते हैं । हमारी अति प्राचीन साहित्य भोजपत्रों और ताड़तत्रों पर ही लिखा मिलता है ।
मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट पीस कर गलाया जाता है उसकी लुगदी तैयार करके मुझे मशीनों ने नीचे दबाया जाता है, तब मैं कागज के रूप में आपके सामने आती हूँ ।
मेरा स्वरूप तैयार हो जाने पर मुझे लेखक के पास लिखने के लिए भेजा जाता है । वहाँ मैं प्रकाशक के पास और फिर प्रेस में जाती हूँ । प्रेस में मुश् छापेखाने की मशीनों में भेजा जाता है । छापेखाने से निकलकर में जिल्द बनाने वाले के हाथों में जाती हूँ ।
वहाँ मुझे काटकर, सुइयों से छेद करके मुझे सिला जाता है । तब मेर पूर्ण स्वरूप बनता है । उसके बाद प्रकाशक मुझे उठाकर अपनी दुकान पर ल जाता है और छोटे बड़े पुस्तक विक्रेताओं के हाथों में बेंच दिया जाता है ।
मैं केवल एक ही विषय के नहीं लिखी जाती हूँ अपितु मेरा क्षेत्र विस्तृत है । वर्तमान युग में तो मेरी बहुत ही मांग है । मुझे नाटक, कहानी, भूगोल, इतिहास, गणित, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, साइंस आदि के रूप में देखा जा सकता है ।
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Explanation:
मैं एक पुस्तक हूं। हालांकि यह कहना थोड़ा कठिन हो जाता है कि, मेरी कहानी कब और कहां से शुरू हुई अर्थात मैं अस्तित्व में कब और कैसे आई।
मुझे नहीं पता कि दुनिया में मेरे आने की खुशी मनी या नहीं लेकिन मैं इतना तो कह सकती हूं कि मेरा अतीत बड़ा ही गहरा सुहावन हरा-भरा साथ ही आनंद और मस्ती से झूमता हुआ रहा है।
इतना ही नहीं मैं प्राचीन समय से लेकर आज तक के दौर में बच्चे, बूढ़े और जवान सबकी सच्ची साथिन और मार्गदर्शिका रही हूं।
क्योंकि आज तक जिसने भी मुझे ग्रहण किया है या फिर कहूँ तो मेरे से दोस्ती की है। मैंने बतौर एक दोस्ती ही सही सबका साथ निभाया है। दूसरे शब्दों में कहूं तो आज तक जिसने भी मुझे अपनाया है।
मैंने उसे सदा देश-दुनिया से लेकर कई सारी ज्ञान ही देते रही हूं। शायद यही कारण है कि, आज भी मुझे ज्ञान-विज्ञान, समझदारी और मनोरंजन का खजाना माना जाता है।
मुझे पढ़कर ही मनुष्य अपने जीवन में सच्ची सफलता हासिल करते हैं। शायद यही वजह है कि, लोगो ने मुझे जीवन की सफलता की कुंजी नाम दे दिया है।
प्राचीन समय से लेकर आज के वर्तमान समय में भी मेरी गणना दुनिया के श्रेष्ठतम चीजों में एक की जाती है। चाहे वह पुस्तकालय हो या दुकान, घर की पढ़ाई टेबल हो या बच्चों की बैग, मैं हर जगह विद्यमान हूं।
चाहे आप हमसे मनोरंजन करना चाहो या ज्ञान हासिल करना मैं सब में सक्षम हूं। चाहे वह पुस्तकालय बड़ा हो या छोटा हर जगह हमें संभाल कर रखा जाता है।
अगर कोई हमें फाड़ने की चेष्टा करता है या फिर मेरे साथ बदसलूकी करता है तो उसे दंड भी दिया जाता है। मेरे बिना कहीं भी पढ़ाई-लिखाई असंभव है।
जिस समाज या देश में हमारा स्थान ना हो उसे अशिक्षित और असभ्य माना जाता है। आज किसी भी देश का विकास हो या आधुनिकता का यह रूप मेरे ही कारण तो यह संभव हो पाया है।
मेरे वर्तमान और प्राचीन स्वरूप में काफी अंतर है। अगर मैं अपने प्राचीन रूप की बात करूँ तो निश्चित तौर पर मैं यह कह सकती हूँ कि, प्राचीन समय में मेरा स्वरूप ऐसा नहीं था।
उस समय मेरा स्वरूप मौखिक था। गुरु मौखिक रूप में ज्ञान देते थे और शिष्य उसे सुनकर ज्ञान प्राप्त करते थे। लेकिन धीरे-धीरे इसमें कठिनाइयां होने लगी।
और ज्ञान को संरक्षित रूप में रखने के लिए इसे लिपिबद्ध अर्थात लिपि के रूप में लिखना आवश्यक के हो गया। तब जाकर ऋषि-मुनियों ने भोजपत्र पर लिखना शुरू किया।
भोजपत्र, साहित्य, ताड़पत्र आदि मेरे प्राचीन रूप है। मेरा मूल घर एक घना जंगल था। जहां कई जातियों के पेड़-पौधे मिलजुल कर रहा करते थे।
कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े आदि का लुगदी तैयार करके मुझे मशीन में डाल दिया जाता है। तब मैं कागज के रूप में ढलती हूं।
इसके बाद मुझे लेखक के पास भेजा जाता है। तत्पश्चात मुझे प्रेस में भेजा जाता है। इतना ही नहीं अंतिम रूप देने के लिए मुझे छापखाने से जिल्द बनाने वाले के पास भेजा जाता है।
तब जाकर मेरा स्वरूप पूर्ण होता है। इस तरह से मुझे वर्तमान स्वरूप और आकार मिल पाया है और मुझे पुस्तक के रूप में जाना जाने लगा।
तब मुझे प्रकाशक ले जाते हैं और छोटे-बड़े दुकान या पुस्तक विक्रेताओं के हाथों बेच दिया जाता है। मेरे विभिन्न रूप हैं अर्थात में अनेक रूप में विद्यमान हूं।
जहां हिंदुओं के लिए मैं रामायण, गीता या महाभारत हूं। वही मुसलमानों के लिए क़ुरान–ए–शफ़री तो सिखों के लिए गुरुग्रंथ साहिब हूं तो ईसाईयों के लिए बाईबल हूं।
यह तो सिर्फ धर्म के आधार पर मेरे रूप का वर्गीकरण है। विषय के आधार पर भी मेरे कई रूप जैसे : उपन्यास, कहानी, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि है।
सभी लोग अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से मुझे खरीदते हैं। हां अगर मेरे कई सारी रूपों को एक ही स्थान पर देखना चाहते हैं तो उसके लिए पुस्तकालय सबसे अच्छी जगह है।
प्रकृति के तरह ही मैं भी मानव जाति के हित के लिए ही जीती हूं। जहां मैं आशावान के लिए नई स्फुर्ती लेकर आती हूं।
वही निराशावान व्यक्ति में आशा का संचार करती हूं और अस्थिर व्यक्ति को स्थिर रहने का संदेश देती हूं। मैं एक ऐसी चीज हूं। जिसे किसी भी समय अध्ययन करने से आप के समय का दुरुपयोग ना हो कर उसका सदुपयोग होगा।
क्योंकि मैं ही ज्ञान का भंडार हूं। मेरे ही अध्ययन से लोग ज्ञान की पराका पराकाष्ठा को छू सकते हैं। हर चीज की एक चाहत होती है।
उसी प्रकार मेरी भी एक चाहत है। मैं चाहती हूं कि कोई भी व्यक्ति मुझे फाड़कर जहां-तहां फेंकने के बजाय कहीं एक जगह रख दे। हर व्यक्ति से मेरी यही आशा है।
जिसने भी मेरा आदर किया है। मैंने उसे महान व्यक्तियों की श्रेणियों में लाकर खड़ा किया है। अर्थात जिसने भी मुझे आदर और सम्मान दिया है।
मैंने भी उसे दुनिया में आदर और सम्मान दिलाया है। यही मेरी कर्म और कहानी है।