PUthakki aathmakathja nibandha 60 se 70 sabdhome batao
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भूमिपुत्र की आत्मकथा
हल-बैल हैं मेरे साथी, मेहनत करना मेरा काम। धरती का बेटा हूँ मैं, भूमिपुत्र है मेरा नाम ।
भारत गाँवों का देश है और मैं उन्हीं गाँवों में रहता हूँ। लोग मुझे अन्नदाता, किसान, भूमिपुत्र जैसे कई नामों से जानते हैं और मेरा सम्मान करते हैं। सारे देशवासी मेरे द्वारा उगाया गया अन्न ग्रहण करके ही अपना और अपने परिवार का पेट भरते हैं। हमारा पूरा जीवन धरती माँ की सेवा में गुजर जाता है। हमारा इतिहास बहुत पुराना है। सभ्यता के विकास से लेकर आज इक्कीसवीं सदी तक मैं अपने पुराने व्यवसाय से ही जुड़ा हुआ हूँ।
पाषाण युग में मैं पत्थरों के औजारों से जमीन का सीना चीरकर अन्न उगाता था। उसके बाद लौहयुग आया और मैं लोहे के बने औजारों का इस्तेमाल कृषि में करने लगा। आज अभियांत्रिकी क्रांति की वजह से हमारा कार्य कुछ सरल हो गया है पर ज्यादा आनंद आज भी हमें अपने परंपरागत संसाधनों में ही आता है और वही हमारी पहचान भी है। देश विकास के नित नए सोपान पर चढ़ रहा है, इसके बावजूद भी आज हमारी पहचान एक गरीब के रूप में ही बनी हुई है। अन्नदाता होने के बाद भी कई बार अन्न की कमी के कारण हमारे भाई आत्महत्या कर लेते हैं।
प्राकृतिक प्रकोप जैसे अल्पवृष्टि, अतिवृष्टि, तूफान, ओले आदि हमारी सालभर की मेहनत पर पलभर में पानी फेर जाते हैं। सरकार द्वारा बनाई गई नीतियाँ या तो अपूर्ण हैं या उनको ढंग से लागू नहीं किया जाता है, जिससे हमें पूरी मदद भी नहीं मिल पाती है। सरकार को हमारे लिए कुछ सोचना होगा, हम बस भगवान के भरोसे अपना और अपने परिवार का पालन कर पाने में असमर्थ हैं।
आज बहुत बुरी स्थिति से गुजर रहा भूमिपुत्र अपने संरक्षण के लिए भगवान और शासन-प्रशासन से बड़ी उम्मीद लगाए बैठा है। बस यही है एक भूमिपुत्र की छोटी सी आत्मकथा ।
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