Q.3 सप्रंसग व्याख्या कीजिये । परब्रह्म के तेज का कैसा है उन्मान। कहिबे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परवान।। हदे छाडि बेहदि गया, दुआ निरन्तर वास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास ।।
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सोभा नहीं, देख्या ही परवान।। हदे छाडि बेहदि गया, दुआ निरन्तर वास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास ।।
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भावार्थ-- पर ब्र्ह्म के तेज,स्वरूप किस प्रकार का है? यह अकथनीय है,अवर्णनीय है। वह अव्यिंजना से परे है,केवल अनुभव करने योग्य है।
शब्दार्थ-- उनमान=अनुमान । कूं=को ।सोम=शोभ=देख्या=देखा, देख्ने से । परवान=प्रमाण ।
अगम अगोघर गमि नहीं,तहाँ जगमगै जोति।
जहाँ कबीरा धंदिगी,(तहां)पाप पुन्य नहीं छोति॥४॥
सन्दर्भ--ब्रह्म प्रकाश स्वरूप है। वह ज्योति का समूह है।
भावार्थ--निर्गुण निराकार ब्रह्म अगम है, अगोचर जहाँ ब्रह्म की ज्योति जगमगाती वहाँ किसी की गति नही है वह पाप-पुण्य कि सीमाओ से परे है। ऐसे ही ब्रह्म ही समक्ष कबीर की प्रार्थ्ना प्रस्तुत होते है।
शब्दार्थ--गमि=गति । ज्योति=प्रकाश । छोति-छूत=अपवित्र ।
हदे छाँडि बेहदि गया,हुआ निरंतर बास।
कवल ज फूल्या फूल बिन,को निरपै निज दास॥५॥
सन्दर्भ--साधक ससीम ब्रह्म को त्याग ;निःसीम ब्रह्मोपासना मे अनुरत्क हुआ ।
भावार्थ--ससीम ब्रह्मोपासना का परित्याग करके (मैं) निराकार निर्गुण ब्रह्मोपासना मे सलग्न हुआ। और उसी मे मेरा चित, स्थायी रूप से रम गया। निर्गुण ब्रह्म रूपी कमल जो स्वयम् है,उसे कौन देख सकता है, उसका कौन अनुभव कर सकता है? ब्रह्म का सेवक ऐसे ब्रह्म का रहस्य जान सकते है।
शब्दार्थ--हदे=हद=सीमा । वेहदि=निःसीम । फूल्या=फूला । निरपै=देपे
कबीर मन मधफर भया,रहा निरंतर वास।
कवल ज फूल्या जलह बिन,को को देखै निज दास॥६॥
संदर्भ--मन मधुकर हो मग्न निरंतर रूप ने अनुवाद हो गया।
भावार्थ--कबीर कहने हे कि मेरा मन मधुकर निगुंसा ब्रह्म पर घनुगन होकर उसी मे निरन्तर दम गया हॅ। माया रूपी जन के मंहार्द मे परे विरुपिमान निगुन ग्र्हा की दर्शन कोई ग्रहण गाहक ही मुक्ता हे।
शब्दार्थ--मदफर=मदुकर,ब्रह्मर।निरंतर=गदत।नषद=वन।