रागों का समय सिद्धांत in brief
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राग काल निर्धारण के अध्ययन में अध्वदर्शक स्वर व परमेलप्रवेशक राग की समझ आवश्यक है।
अध्वदर्शक स्वर
प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों में शुद्ध मध्यम की प्रबलता के साथ कोमल ‘रे ध’ का प्रयोग बहुलता से होता है। इस समय के कुछ रागों में तीव्र मध्यम का प्रयोग भी होता है। किन्तु शुद्ध मध्यम की अपेक्षा, वह दुर्बल रहता है। ललित, परज, रामकली इसके उदाहरण हैं। उसके बाद दूसरे प्रहर के और तीसरे प्रहर के रागों में ‘रे ध’ कोमल वाले राग और फिर ‘रे ध’ शुद्ध वाले रागों का गायन वादन होता है। दिन के अंतिम प्रहर में कोमल ‘ग नी’ वाले राग गाये जाते हैं। सायं कालीन संधिप्रकाश रागों में पुन: ‘रे ध’ कोमल की बहुलता हो जाती है। किन्तु इन रागों में शुद्ध मध्यम की अपेक्षा तीव्र मध्यम प्रबल होता है। दूसरे और तीसरे प्रहर के रागों में क्रमश: ‘रे ध’ शुद्ध वाले तथा ‘ग नी’ कोमल वाले रागों की बहुलता हो जाती है। रात्रि के चौथे प्रहर के राग प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों से प्रभावित होने लगते हैं।
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कुछ प्राणीवाचक संज्ञा जब पुरुष और स्त्री दोनों लिंगों का बोध करती है तो वे नित्य पुल्लिंग में शामिल हो जाते हैं। जैसे - खरगोश, खटमल, गैंडा, भालू, उल्लु आदि। ... कुछ प्राणीवाचक संज्ञा जब पुरुष और स्त्री दोनों का बोध करे तो वे नित्य स्त्रीलिंग में शामिल हो जाते हैं।