रंगीन प्रभामंडल के प्रकार की पुष्टि करने के लिए कौन सा परीक्षण किया जाता है
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आमतौर पर सिरदर्द एक हिस्से को प्रभावित करता है और इसकी प्रकृति धुकधुकी जैसी होती है जो 2 से लेकर 72 घंटों तक बना रहता है। संबंधित लक्षणों में मितली, उल्टी, फोटोफोबिया (प्रकाश के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता), फोनोफोबिया (ध्वनि के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता) शामिल हैं और दर्द सामान्य तौर पर शारीरिक गतिविधियों से बढ़ता है।[1] माइग्रेन सिरदर्द से पीड़ित एक तिहाई लोगों को ऑरा के माध्यम इसका पूर्वाभास हो जाता है, जो कि क्षणिक दृष्य, संवेदन, भाषा या मोटर (गति पैदा करने वाली नसें) अवरोध होता है और यह संकेत देता है कि शीघ्र ही सिरदर्द होने वाला है।[1]
माना जाता है कि माइग्रेन पर्यावरणीय और आनुवांशिकीय कारकों के मिश्रण से होते हैं।[2] लगभग दो तिहाई मामले पारिवारिक ही होते हैं।[3] अस्थिर हार्मोन स्तर भी एक भूमिका निभा सकते हैं: माइग्रेन यौवन पूर्व की उम्र वाली लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा थोड़ा अधिक प्रभावित करता है लेकिन पुरुषों की तुलना में महिलाओं को दो से तीन गुना अधिक प्रभावित करता है।[4][5] आम तौर पर गर्भावस्था के दौरान माइग्रेन की प्रवृत्ति कम होती है।[4]माइग्रेन की सटीक क्रियाविधि की जानकारी नहीं है। हलांकि इसको न्यूरोवेस्कुलर विकार माना जाता है।[3] प्राथमिक सिद्धांत सेरेब्रल कॉर्टेक्स (प्रमस्तिष्कीय आवरण) की बढ़ी हुयी उत्तेजना तथा ब्रेनस्टेम(रीढ़ के पास का मस्तिष्क का हिस्सा) के ट्राइगेमिनल न्यूक्लियस (त्रिपृष्ठी नाभिक) में न्यूरॉन्स दर्द के असमान्य नियंत्रण से संबंधित है।[6]
आरंभिक अनुशंसित प्रबंधन में, सिरदर्द के लिये सामान्य दर्दनाशक दवाएं जैसे आइब्युप्रोफेन और एसिटामिनोफेन, मितली और शुरुआती समस्याओं के लिये मितलीरोधी दवायें दी जाती हैं। जहां पर सामान्य दर्दनाशक दवायें प्रभावी नहीं होती हैं वहां पर विशिष्ट एजेन्ट जैसे ट्रिप्टन्स या एरगोटामाइन्स का उपयोग किया जा सकता है।
आयुर्वेद में इसे अर्धावभेदक कहा गया है। अर्धावभेदक का वर्णन आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में किया गया है जो कि इस प्रकार है -
रूक्षात्यध्यशनात् पूर्ववातावश्यायमैथुनैः। वेगसंधारणायासव्यायामैः कुपितोऽनिलः ॥
केवलः सकफो वाऽर्ध गृहीत्वा शिरसस्ततः। मन्याभ्रूशंखकर्णाक्षिललाटर्धेऽतिवेदनां ॥
शस्रारणिनिभां कुर्यात्तीव्रां सोऽर्धावभेदकः। नयनं वाऽथवा श्रोतमतिवृद्धो विनाशयेत् ॥ (च.सि.९/७४-७५)
अर्थात् रूक्ष भोजन, अधिक मात्रा में भोजन, अध्यशन (पहले का खाना न पचने पर भी खाना खाना ), पूर्वी वायु (पूर्व दिशा से चलने वाली वायु), अवश्याय (ओस), अतिमैथुन, वेग संधारण ( मल-मूत्र के वेग को रोकना ), परिश्रम व अतिव्यायाम से वात दोष, कफ दोष के साथ मिल कर शिर के आधे भाग को जकड़ कर मन्या, भृकुटी, शंखप्रदेश, कर्ण, नेत्र व ललाट के अर्ध भाग में शस्त्र से काटने तथा अरणी मन्थन के समान तीव्र वेदना होती है, जिससे अर्धावभेदक की उत्पत्ति होती है। अर्धावभेदक अधिक बढ़ने पर नेत्र व कर्णेन्द्रियों का नाश कर देता है। अर्धावभेदक की तुलना आधा-सीसी का दर्द से की जा सकती है।