रंगभूमि में दुर्योधन ने क्या कहकर कर्ण का पक्ष लिया तथा किस प्रकार उसकी सहायता की? is par 100 sey 150 shabd likhey plz be fast meyra test chal raha hai i will follow you plzzz be fast
Answers
Answer:
कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है।
कर्ण की वास्तविक माँ कुंती थी। कर्ण का जन्म कुंती के पांडु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था,और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाईयों के विरुद्ध लड़ा। वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों ना पड़ गए हों। कर्ण की छवि आज भी भारतीय
जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो
जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता
रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि
कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका
वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है।
कर्ण का जन्म कुंती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुंती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुंती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पांडु से उसे संतान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे संतान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुंती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था,और वह कवच और कुंडल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया। कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नि राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे।
उन्होंने उसे वासुसेना नाम दिया। अपनी पालक माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।
कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे।
द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को
शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को
ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यंत परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।
कर्ण को मिले विविध श्राप:
कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से श्राप मिला था।
कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छु को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना
कि किसी ब्राह्मण में, और परशुरामजी ने उसे
मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब
भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उसदिन वह उसके काम नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है – अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में
में माना जाता है कि बिच्छु के रुप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।
परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात,कर्ण कुछ समय तक भटकता