राइट अ संवाद लेखन ऑन किसान आंदोलन इन हिंदी
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भारतीय इतिहास में किसानों द्वारा अपने ऊपर किए जा रहे अत्याचार या शोषण का प्रतिरोध करना कोई नई बात नहीं रही है। अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए उन्होंने जो तरीके अपनाए वो आमतौर पर दो तरह के थे - एक, अत्याचारी शासक या स्थानीय जमींदार के अधिकार क्षेत्र से दूर जाकर किसी और इलाके में खेती करना तथा दूसरा, सीधे तौर पर उन अत्याचारियों का विरोध करना। यह विरोध अक्सर आक्रामक या हिंसक रूप भी अख्तियार कर लेता था।
पहले किस्म के विरोध प्रदर्शन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात हमें याद रखनी चाहिए कि आज से करीब 100 साल पहले तक शासक वर्ग के लिए भूमिकर आय का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण स्रोत था । ऐसे में किसी शासक के इलाके के किसान शासक से तंग आकर उसका इलाका छोड़ किसी और इलाके में चले जाएं तो इसका सीधा असर उस शासक की आय पर पड़ता था। इसलिए शासक वर्ग यह कभी नहीं चाहता था कि किसान उसका इलाका छोड़कर जाएं। आज की स्थिति के विपरीत पुराने समय में देश के ऐसे सभी इलाके जहां खेती की जा सकती थी, वहां खेती नहीं हो रही थी। उस समय किसी भी व्यक्ति को यह छूट थी कि वह कहीं भी जमीन तोड़कर खेती करना शुरू कर सकता था। इस काम में उस इलाके का शासक वर्ग भी उनकी मदद करता था - क्योंकि इसका फायदा उन्हें भी मिलने वाला होता था। किसानों द्वारा विरोध प्रदर्शन का यह तरीका सबसे ज्यादा प्रचलित था और सैकड़ों साल तक किसानों ने इसका इस्तेमाल किया।
इसी के साथ दूसरे किस्म के विरोध प्रदर्शन, यानी शासक वर्ग की सत्ता को चुनौती देना, भी होते थे। ऐसा एक उदाहरण हमें छठवीं शताब्दी में दक्षिण भारत से मिलता है। जब कलभ्र नामक एक कबायली जाति के लोगों ने ब्राह्मणों और अन्य उच्च वर्ण के लोगों से उन्हें शासकों द्वारा दान में मिली जमीनें छीन ली थीं। इसी तरह दसवीं शताब्दी में पूर्वी भारत में कैवर्ती ने, जो कि कलभ्रों की ही तरह नीची जाति के लोग थे - पाल शासक महीपाल के समय में अपनी जमीन वापस पाने के लिए विद्रोह किया था। इस किस्म के विरोध प्रदर्शन भारत में पूर्व मध्यकाल से शुरू होकर अंग्रेजों का शासन स्थापित होने तक बहुत ही आम हो गए थे। लेकिन इस किस्म के विरोध प्रदर्शन या विद्रोहों की जो सबसे खास बात थी कि इन विद्रोहों का नेतृत्व स्थानीय जमींदार या भूमिकर व्यवस्था से जुड़े निचले तबके के अधिकारियों के हाथों में होता था और आमतौर पर ये विद्रोह शासक के स्तर पर किए गए परिवर्तनों के विरोध में होते थे।
इस समय के विद्रोहों का अध्ययन करने पर हमें यह भी पता चलता है कि अंग्रेजों की व्यवस्था शुरू होने से पहले तक ज़मींदारों या निचले स्तर के शासकीय अमलों के, किसानों से संबंध आमतौर पर अच्छे थे और इसी कारण यह जमींदार वर्ग विद्रोहों के दौरान किसानों का नेतृत्व संभाल पाता था।
लेकिन अंग्रेजों की शासन व्यवस्था आरंभ होने के बाद जमींदारों और किसानों के बीच का यह सौहार्दपूर्ण संबंध ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। इसका कारण बनी अंग्रेजों द्वारा लागू की गई नई भूमिकर व्यवस्थाएं। इन व्यवस्थाओं ने भूमि को एक परिवर्तनीय (हस्तांतरणीय) संपत्ति के रूप में बदल दिया, अर्थात भूमि अब खरीद-बिक्री की जा सकने वाली एक वस्तु बन गई। इसी के साथ पुराने जमींदारों या भूमिकर वसूलने वालों का स्थान नए जमींदारों व साहूकारों ने ले लिया जिसके कारण पुराने जमींदारों व किसानों के बीच सदियों से जो सौहार्दपूर्ण संबंध थे वे खत्म हो गए। यह सब किस प्रकार हो पाया इसे थोड़ा समझने की जरूरत है।
एक औपनिवेशिक ताकत के रूप में अंग्रेजों का उद्देश्य भारत से ज्यादा-से-ज्यादा पैसा कमाना था। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत वे भारत में भूमिकर के माध्यम से ज्यादा-से-ज्यादा पैसा उगाहने की कोशिश करते थे और फिर इसी पैसे से भारत का सामान खरीद कर इंग्लैंड व यूरोप के अन्य देशों में बेचकर मुनाफा कमाते थे। इन व्यापारिक गतिविधियों के कारण उन्हें पैसा अधिक मात्रा में तथा निर्धारित समय पर चाहिए होता था। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर उन्होंने भूमिकर की ऐसी व्यवस्थाएं बनाईं जिसमें उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा पैसा नियत समय पर प्राप्त हो सके। इन व्यवस्थाओं ने परंपरागत रूप से चली आ रही भूमिकर से संबंधित संरचना को तोड़ दिया। जब पुराने जमींदार अत्याधिक ऊंची दर पर निश्चित समय सीमा के अन्दर कर उगाहने में असफल रहे तो उन्हें हटाकर नए लोगों को इसकी ज़िम्मेदारी दे दी गई। इन नए लोगों को कृषि के विकास या किसानों की भलाई की कोई चिंता नहीं थी उन्हें तो केवल कर से मतलब था जिसे उन्हें एक नियत तिथि से पहले जमा करना पड़ता था। (एक अध्ययन के अनुसार बंगाल में केवल 30 वर्षों में भूमि कर की दर मुगल काल की दर से दोगुनी हो गई थी ।) जिन इलाकों में जमींदारों की जगह सीधे किसानों से कर वसूलने की व्यवस्था थी वहां भी कर की ऊंची दर तथा निश्चित तारीख के कारण किसान काफी मुश्किल में थे। समय पर कर न चुकाने पर जमीन की नीलामी का डर बना रहता था। इसके अतिरिक्त अंग्रेज शासन को इस बात की परवाह नहीं होती थी कि सूखा पड़ा है या अकाल, उन्हें तो तय राशि चाहिए ही होती थी। नतीजा यह हुआ कि किसान धीरे-धीरे महाजनों के चंगुल में फंसते चले गए और इस तरह उनकी जमीन, फसलें व पशु उनके हाथ से निकल कर जमीदारों, व्यापारियों-महाजनों और धनी किसानों के हाथ में पहुंचते गए। खुद की जमीन जोतने वाले छोटे किसानों की हैसियत महज काश्तकारों, बटाईदारों व खेतिहर मजदूरों की ही रह गई।