राज्य की प्रगति पर लिबरल और मार्क्सवादी विचारों की तुलना 1500 शब्दों में उत्तर दें
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Explanation:
2017 रूसी क्रांति का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, लेकिन जिनके विचारों पर ये क्रांति हुई, क्या वो आज भी प्रासंगिक हैं?
हालांकि जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवीं शताब्दी में काफ़ी कुछ लिखा, लेकिन आज भी इसमें कोई विवाद नहीं है कि उनकी दो कृतियां 'कम्युनिस्ट घोषणा पत्र' और 'दास कैपिटल' ने एक समय दुनिया के कई देशों और करोड़ों लोगों पर राजनीतिक और आर्थिक रूप से निर्णयात्मक असर डाला था.
रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ का उदय इस बात का उदाहरण था. कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि बीसवीं शताब्दी के इतिहास पर समाजवादी खेमे का बहुत असर रहा है. हालांकि, जैसा मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा था, उस तरह साम्यवाद ज़मीन पर नहीं उतर पाया.
अंततः समाजवादी खेमा ढह गया और पूंजीवाद लगभग इस पूरे ग्रह पर छा गया. आईए जानते हैं, मार्क्स के वे चार विचार कौन से हैं जो साम्यवाद की असफलता के बावजूद आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं.
Answer:
कार्ल मार्क्स ने अपने पीएचडी शोध-प्रबंध के बाद लिखी गयी पहली लम्बी रचना में काफ़ी गहनता से राज्य की अवधारणा का विश्लेषण किया था। इस रचना का शीर्षक था : 'क्रिटीक ऑफ़ हीगेल्स फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ स्टेट' (1843)। बाद में मार्क्स ने अपने ऐतिहासिक लेखन में राज्य पर गहराई से विचार किया। इस संदर्भ में 'क्लास स्ट्रगल इन फ़्रांस' (1850), 'एट्टींथ ब्रूमेर ऑफ़ लुई बोनापार्ट' (1852) और 'सिविल वार इन फ़्रांस' (1871) का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। एंगेल्स ने भी एंटी-ड्युहरिंग (1878) और ऑरिजिन ऑफ़ फैमिली (1894) में राज्य पर विस्तार से चर्चा की है। लेनिन ने बोल्शेविक क्रांति से ठीक पहले लिखे गये अपने प्रबंध स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन में राज्य के मार्क्सवादी सिद्घांत की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की। परवर्ती मार्क्सवादी चिंतकों में ग्राम्शी ने भी राज्य की भूमिका पर गहराई से विचार किया। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मार्क्सवाद में होने वाले वाद-विवाद में राज्य पर कम ध्यान दिये जाने का एक बड़ा कारण आधिकारिक या सोवियत मार्क्सवाद के भीतर स्तालिनवाद का वर्चस्व था। इसके तहत कोशिश रहती थी कि मार्क्सवाद के भीतर विभिन्न श्रेणियों के बारे में किसी गहरे वाद-विवाद को बढ़ावा न दिया जाए। इसके अलावा, मार्क्सवाद पर अक्सर हावी होने वाले आर्थिक निर्धारणवाद के कारण भी राज्य की अवधारणा की उपेक्षा की गयी। इसके तहत मान लिया गया था कि राज्य अधिरचना का भाग है, जिसकी रूपरेखा और प्रकृति हमेशा ही आर्थिक आधार द्वारा तय होती है। लेकिन साठ के दशक से मार्क्सवाद के भीतर राज्य और इसकी ‘सापेक्षिक स्वायत्तता’ के बारे में काफ़ी गहराई से वाद-विवाद शुरू हुआ। इसमें अलथुसे, पोलांत्साज़ और मिलिबैंड जैसे विद्वानों ने योगदान किया।