रिक्शा चालक और मेघा के बीच हुई संवादों को अपने शब्दो में लिखिए।
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सवारीः- भाई साहब, मुझे चाँदनी चौक जाना हैं। कितना किराया लोगे।
रिक्शावालाः- देखिए साहब, किराया मीटर के हिसाब से देना हैं। यह सरकार द्वारा तय दरें हैं। सवारीः- ठीक है। मीटर के हिसाब से ही सही हैं। मुझे वहां किसी काम से जाना हैं और वापस भी लौटना हैं। वहां रूकने का कितना पैसा लोगे
रिक्शावालाः- यदि आप 30 मिनिट से ज्यादा रूकते हैं तो प्रति घण्टे आपको एक सौ रूपयें की दर से देना होंगा।
सवारीः- ठीक हैं। मुझे मंजूर हैं। चलिए।
रिक्शावालाः- आपका सामान ला दो, मैं पीछे डिक्की में रख देता हूं।
सवारीः- मेरे पास सिर्फ ये छोटा सा थैला हैं। जिसे में हाथ में ही रखता हूं, और कोई सामान नहीं हैं। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं हैं।
रिक्शावालाः- लो , आ गया चाँदनी चौक, कहां तक जाना है.
सवारीः- बस, यहीं पार्क कर दो। मैं जल्दी ही आने की कोशिश करूगा।
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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना (जिसे कभी-कभी 'ब्रिटिश भारतीय सेना' कहा जाता है) ने प्रथम विश्व युद्ध में यूरोपीय, भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपने अनेक डिविजनों और स्वतन्त्र ब्रिगेडों का योगदान दिया था। दस लाख भारतीय सैनिकों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी थीं जिनमें से 62,000 सैनिक मारे गए थे और अन्य 67,000 घायल हो गए थे। युद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी।
1903 में किचनर को भारत का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किये जाने के बाद भारतीय सेना में प्रमुख सुधार किये गए थे। उनहोंने बड़े पैमाने पर सुधारों की शुरुआत की जिनमें प्रेसीडेंसियों की तीनों सेनाओं को एकीकृत कर एक संयुक्त सैन्य बल बनाना और उच्च-स्तरीय संरचनाओ तथा दस आर्मी डिविजनों का गठन करना शामिल है।[1]
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना ने जर्मन पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध किया। यप्रेस के पहले युद्ध में खुदादाद खान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय बने। भारतीय डिवीजनों को मिस्र, गैलीपोली भी भेजा गया था और लगभग 700,000 सैनिकों ने तुर्क साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटामिया में अपनी सेवा दी थी।[2] जब कुछ डिवीजनों को विदेश में भेजा गया था, अन्य को उत्तर पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए और आंतरिक सुरक्षा तथा प्रशिक्षण कार्यों के लिए भारत में ही रहना पड़ा था।