Hindi, asked by sonalichowdhury5653, 8 months ago

राम का मन कैसे शांत होने लगा जब सीता को नहीं खोज पाए थे तब भी

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Answered by agrawaldrishti
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Explanation:

पुरुषोत्तम भी क्रोधावेश में आकर अपने धनुष पर दिव्यास्त्र चढ़ाते हैं। ऐसे में परशुराम जी को श्री राम की वास्तविकता का भान होता है तथा वे स्वयं उन्हें शांत हो जाने के लिए मनाने लगते हैं।

सीता जी को लंका से वापस लाने के लिए युद्ध करना आवश्यक था। रावण को लंका गए बिना पराजित कैसे किया जा सकता था। श्री राम ने इसके लिए समुद्र से अपनी लहरों को शांत कर देने का अनुरोध किया ताकि उस पर सेतु का निर्माण किया जा सके। जब तीन दिन तक की निरंतर प्रार्थना के बाद भी समुद्र शांत नहीं हुआ तब श्री राम ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा उसे सुखा देने का निश्चय किया। उनके ऐसा निश्चय करते ही समुद्र देवता थर-थर कांपने लगते हैं तथा प्रभु श्री राम से शांत होने की प्रार्थना करते हैं।

बालि वध कर श्री राम ने सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य दिला दिया। इसके एवज में सुग्रीव ने सीता जी के खोज अभियान में सहायता करने का वचन दिया। किंतु बहुत दिनों से भोग-विलास से च्युत सुग्रीव अचानक राज-पाट पाकर अपना वचन भूल बैठे। क्रोधित श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण को अपना दूत बना कर सुग्रीव के पास भेजा ताकि उन्हें उनके वचन की याद दिलाई जा सके। लक्ष्मण सुग्रीव के पास पहुंचते हैं और उन्हें भोग विलास में लिप्त देखकर क्रोधित हो जाते हैं। तत्पश्चात सुग्रीव अपने श्रेष्ठतम सेनानायक हनुमान को श्री राम की सहायता के लिए नियुक्त करते हैं।

वनवास काल में चित्रकूट प्रवास के दौरान इंद्र का पुत्र काकासुर सीता जी की गरिमा व मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। इस पर भगवान श्री राम ने क्रोधित होते हुए तृण को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने का निश्चय किया। काकासुर तीनों लोकों में अपनी रक्षा की गुहार लगाता है किंतु उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आता। ऐसे में वह प्रभु श्रीराम के चरणों में लोट जाता है। ब्रह्मास्त्र को निष्फल नहीं होने दिया जा सकता है। श्रीराम ने उसके प्राण तो बख्श दिए किंतु ब्रह्मास्त्र से उसकी दाईं आंख पर प्रहार किया। इसीलिए मान्यतानुसार आज भी कौवे की दाईं आंख में दोष पाया जाता है।

प्रभु श्री राम जब भी क्रोधित हुए उसके पीछे कोई न कोई बहुत बड़ा कारण अवश्य रहा। मर्यादापुरुषोत्तम ने धर्म और कर्तव्य पालन के दौरान बाधा आने पर ही क्रोध प्रकट किया। इसका आशय यही है कि धर्म स्थापना व कर्तव्य पालन में आने वाली बाधा सर्वथा अस्वीकार्य है

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