राम मनोहर लोहिया के भारतीय राजनीतिक विचार क्या थे?
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Explanation:लोहिया एक फ़िजा थे, साथ ही एक अनोखी व गर्म फ़िजा के निर्माता भी। वह फिजा कैसी थी ?
सम्पूर्ण आजादी, समता, सम्पन्नता, अन्याय के विरुद्ध जेहाद और समाजवाद की फ़िजा।
आज वह फ़िजा भी नहीं है, लोहिया भी नहीं है।
लेकिन दूसरों के लिए जीने वाला कभी मरता नहीं। लोहिया आज भी अपने विचारों में जीवित है। लगन, ओजस्विता और उग्रता–प्रखरता को जब तक गुण माना जायेगा, लोहिया के विचार अमर रहेंगे।
मूलतः लोहिया राजनीतिक विचारक, चिंतक और स्वप्नद्रष्टा थे, लेकिन उनका चिन्तन राजनीति तक ही कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिन्तन-धारा की विशेषता थी। राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी उनके मौलिक विचार थे।
लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
लोहिया गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के अखण्ड समर्थक थे, लेकिन गाँधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे: वे समाजवादी थे, लेकिन मार्क्स को एकांगी मानते थे: वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना देखते थे: वे आधुनिकतम विद्रोही तथा क्रान्तिकारी थे, लेकिन शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक थे।
लोहिया मानते थे कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है। फिर वे समाजवाद को भी प्रजातन्त्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातन्त्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे व बेमतलब हैं।’’ लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियां थी।
1 नर-नारी की समानता के लिए,
2 चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,
3 संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,
4 परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,
5 निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,
6 निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,
7 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा-‘मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।’
कर्म के क्षेत्र में अखण्ड प्रयोग और वैचारिक क्षेत्र में निरन्तर संशोधन द्वारा नव-निर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील भी लोहिया का एक रूप है। जीवन का कोई भी पहलू शायद ही बचा हो, जिसे लोहिया ने अपनी मौलिक प्रतिभा से स्पर्श न किया हो। मानव-विकास के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी विचारधारा सबसे भिन्न और मौलिक रही है।
लोहिया के विचारों में अनेकता के दर्शन होते हैं। त्याग, बुद्धि और प्रतिमा के साथ सूर्य की प्रखरता है तो वहीं चन्द्रमा की शीतलता भी है, वज्र की कठोरता है
लोहिया को भारतीय संस्कृति से न केवल अगाध प्रेम था बल्कि देश की आत्मा को उन जैसा हृदयंगम करने का दूसरा नमूना भी न मिलेगा। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व-दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का असली व सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक-दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें।
भारतमाता से लोहिया की माँग थी-‘‘हे भारतमाता ! हमें शिव का मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’
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