"राम और भरत का प्रेम अद्वितीय था।" तुलसी के इस कथन को सप्रमाण समझाइए।
Answers
‘राम और भरत का प्रेम अद्वितीय था’ तुलसी का यह कथन बिल्कुल सत्य है।
‘हारेहूं खेल जितावहि मोहि’ तुलसीदास के दोहे की इस पंक्ति से पता चलता है कि भरत श्री राम के प्रेम भाव को प्रकट कर रहे हैं। भरत कहते हैं कि श्री राम बचपन में खेल खेलते समय उनको जानबूझकर जिता देते थे, यानी वे खेल में खुद-ब-खुद हार जाते ताकि उन का छोटा भाई भरत जीत सके और उसे प्रसन्नता हो और उसे हारने का दुख ना हो। भरत को यह बात पता चली और तो उनका अपने भाई राम के प्रति प्रेम और श्रद्धा और बढ़ गये और यह दो भाइयों के प्रति प्रेम भाव को प्रकट करता है।
भरत अपने बड़े भाई से बहुत प्रेम और स्नेह भी करते थे और उनका बहुत सम्मान भी करते थे। जब उन्हें पता चला कि उनकी माँ कैकेई ने उनके बड़े भाई को बनवास भेजने का वर मांग लिया तो वह अपनी ननिहाल से आकर अपनी माँ कैकेई को भला बुरा कहते हैं। वे सिंहासन पर अधिकार अपने बड़े भाई का ही समझते हैं और अपने बड़े भाई श्री राम को वनवास से वापस लाने के लिए वन की ओर चल देते हैं।
वह श्रीराम से वन में भेंट करके उन्हें वापस लाने के लिए अनुनय-विनय करते हैं। लेकिन प्रभु श्री राम वचन से बंधे थे, इसलिए वह वापस नहीं आते तो भी भरत श्रीराम की खड़ाऊँ लेकर उन्हे श्रीराम के प्रतीक के रूप में सिंहासन पर रखकर राजपाट चलाते हैं अर्थात यह बात सिद्ध करती है कि दोनों भाइयों में प्रेम था। भातृ प्रेम के आगे भरत को सिंहासन का भी मोह नहीं था। इससे यह सिद्ध होता है कि दोनों भाई राम और भरत में असीम प्रेम और स्नेह था।
Answer:
“अगम सनेह भरत रघुबर को | जँह न जाई मनु विधि हरिहर को ||” ------रामचरित मानस
तुलसी कहते है भरत राम का प्रेम अगम्य है वहाँ तक ब्रम्हा विष्णु और स्वयं शंकर का मन भी नहीं पहुँच सकता है | भारद्वाज ऋषि ने अत्यंत उचित ही कहा है कि “तुम तौ भरत मोर मत एहु | धरे देह जनु राम सनेहु ||” ------रामचरित मानस )अर्थ है कि भरतजी आप ऐसे है जैसे साक्षात् श्रीराम के प्रेम ने ही शरीर धारण किया हो |
ऐसे कई प्रसंग तुलसीकृत रामचरितमानस में प्राप्त होते है जिसमें से एक उल्लेखनीय प्रसंग है कि श्री भरतजी तीरथराज प्रयाग से यह वरदान मांग रहे है और कह रहे है कि “मैं अपना धर्म (न माँगने का क्षत्रिय धर्म) त्यागकर आप से भीख माँगता हूँ।
(“अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ||
-----रामचरित मानस
इसका मतलब है मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता हूँ, अन्य मुझे कुछ नहीं चाहिए |"
वस्तुत: प्रेम में कामनाओं का त्याग करना, धन का त्याग करना, मोक्ष (मरणोपरांत सद्गतिकी चाह)को छोड़ना, यद्यपि कठिन है, फिर भी संभव है किन्तु धर्म का त्याग विवेकी पुरुषों के लिए लगभग असम्भव होता है | यहाँ श्री भरतजी उसका भी त्याग कर चुके | ये प्रेम की पराकाष्ठा है |
इसी भांति श्रीराम का भी भरतजी पर विलक्षण प्रेम तथा अटूट नेह है जिसके कारण वह भरतजी के लिए लक्ष्मणजी से कहते है कि "अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है , ब्रम्हा,विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राजमद नहीं होने का, क्या कभी कांजी(एक पेय व्यंजन) की बूंदों से दूध का समुद्र फट सकता है ? "(“ भरतहि होई न राजमदु विधि हरिहर पद पाई | कबहुँक कांजी सीकरनी क्षीरसमुद्र बिलगाई || " --------- -- -------------- रामचरित मानस ) ” यह प्रेम अगाध और अद्वितीय है |