राम और समुद्र के बीच हुई वार्तालाप को संवाद के रूप में लिखिए
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वाल्मीकीय रामायण में लंकादहन के प्रसंग का उल्लेख है । कथा है कि रावण के द्वारा सीताहरण के पश्चात् भ्राताद्वय राम एवं लक्ष्मण सीता की खोज में निकल पड़ते हैं । इस दौरान ऋष्यमूक पर्वत पर उनकी भेंट हनुमान्-सुग्रीव से भेंट होती है और दोनों पक्षों के बीच मित्रता हो जाती है । सुग्रीव राम द्वारा उपकृत होते हैं और बदले में सुग्रीव सीता की खोज में अपनी वानरसेना को लगा देते हैं । सीता की तलाश में हनुमान् रावणनगरी लंका पहुंचते जहां उन्हें अशोकवन में सीता के दर्शन होते हैं । सीता के समक्ष वे अपना परिचय एवं साक्ष प्रस्तुत करते हैं । दोनों के बीच वार्तालाप होता है, और बाद में सीता से अनुमति लेकर हनुमान् अशोकवन में भ्रमण करने एवं वहां के फल-फूलों का आस्वादन करने निकल पड़ते हैं ।
अशोकवन के रक्षकों से उनका संघर्ष होता है, कइयों को वे धराशायी करते हैं, और अंत में पकड़ लिए जाते हैं । उन्हें रावण की सभा में पेश किया जाता है, जहां निर्णय लिया जाता है कि राम के दूत के तौर आए हनुमान् को मारना उचित नहीं । सांकेतिक दंड के तौर पर उनके पूंछ पर ढेर-सारे कपड़े एवं ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर आग लगा दी जाती है । जलती पूंछ के सहारे गुस्से से आग-बबूला होकर हनुमान् लंका जलाने निकल पड़ते हैं । लंका नगरी जल उठती है, भवन ध्वस्त हो जाते हैं, लोग हताहत होते हैं । पूंछ की अग्नि जब शांत हो जाती है और उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता है तो अनायास उन्हें सीता का स्मरण हो आता है । वे सोचते हैं कि इस अग्निकांड में तो अशोकवन भी जल उठा होगा । कहीं देवी सीता को तो हानि नहीं पहुंची होगी, क्या धधकते अशोकवन की आग से वे आहत तो नहीं हो गयीं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में उठते हैं, और वे चिंतित हो जाते हैं । वे अशोकवन की ओर लौट पड़ते हैं, सीता की कुशल पाने ।
उस समय उन्हें अपने मन में उठे क्रोध को लेकर पश्चाताप होता है । यह सोचकर उन्हें दुःख होता है कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने अनर्थ कर डाला । वे अपने मूल उद्येश्य से भटक गये । आदि, आदि । अधोलिखित श्लोकों में तात्क्षधिक क्रोध संबंधी उनके मनोभावों को काव्यरचयिता वाल्मीकि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:
अशोकवन के रक्षकों से उनका संघर्ष होता है, कइयों को वे धराशायी करते हैं, और अंत में पकड़ लिए जाते हैं । उन्हें रावण की सभा में पेश किया जाता है, जहां निर्णय लिया जाता है कि राम के दूत के तौर आए हनुमान् को मारना उचित नहीं । सांकेतिक दंड के तौर पर उनके पूंछ पर ढेर-सारे कपड़े एवं ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर आग लगा दी जाती है । जलती पूंछ के सहारे गुस्से से आग-बबूला होकर हनुमान् लंका जलाने निकल पड़ते हैं । लंका नगरी जल उठती है, भवन ध्वस्त हो जाते हैं, लोग हताहत होते हैं । पूंछ की अग्नि जब शांत हो जाती है और उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता है तो अनायास उन्हें सीता का स्मरण हो आता है । वे सोचते हैं कि इस अग्निकांड में तो अशोकवन भी जल उठा होगा । कहीं देवी सीता को तो हानि नहीं पहुंची होगी, क्या धधकते अशोकवन की आग से वे आहत तो नहीं हो गयीं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में उठते हैं, और वे चिंतित हो जाते हैं । वे अशोकवन की ओर लौट पड़ते हैं, सीता की कुशल पाने ।
उस समय उन्हें अपने मन में उठे क्रोध को लेकर पश्चाताप होता है । यह सोचकर उन्हें दुःख होता है कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने अनर्थ कर डाला । वे अपने मूल उद्येश्य से भटक गये । आदि, आदि । अधोलिखित श्लोकों में तात्क्षधिक क्रोध संबंधी उनके मनोभावों को काव्यरचयिता वाल्मीकि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:
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राम और समुद्र के बीच हुई बातचीत का संवाद लेखन इस प्रकार है:
Explanation:
राम: समुद्र देवता यदि आप हमें अपने में से थोड़ा रास्ता देंगे तो मैं अपनी पत्नी सीता को राक्षस के चंगुल से बचा लाऊंगा।
समुद्र: रास्ता तो तुम्हें अवश्य मिल ही जाएगा लेकिन मेरा पानी बहुत गहरा है उस पर तुम चलोगे कैसे???
राम: अवश्य ही यह एक बहुत बड़ी समस्या है लेकिन मुझे इसका केवल एक ही उपाय दिखता है वह है सेतु बनाना।
समुद्र: अर्थात??
राम: महाराज जी यदि आप हमें अपने समुद्र पर सेतु बनाने की अनुमति दे दे तो हमारा कार्य आसान हो जाएगा।
समुद्र: ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।
राम: धन्यवाद समुद्र देव।
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