Hindi, asked by gayathrirt2007, 9 hours ago

राम पर चित्र वर्णन ?​

Answers

Answered by jha37731
0

Answer:

मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक काल से आज तक जितने भी लोकनायक हुए है, राम इन सभी में महानायक है लोकदृष्टा तुलसीदास का मानना है कि सभी प्राणियों में साक्षात् राम आत्मवत् है वही जीवन के केन्द्र में है इसलिए सारा संसार उनकी रचनात्मक चेतना का प्रतिबिम्ब है।

सिया राम मय सब जानी।

करौ प्रणाम जोरि जुग जानी।।

गोस्वामी तुलसीदास का रचनाकाल भारतीय समाज व्यवस्था का ऐसा आदर्श काल था, जिससे समाज को सदैव नई चेतना और नई प्रेरणा मिलती है। इस काल की समृद्ध प्रकृति और सुखी समाज व्यवस्था हजारों वर्षो से जन सामान्य को प्रभावित और आकर्षित करती रहती है इसलिए रामराज्य हमारा सांस्कृतिक लक्ष्य रहा है। रामचरितमानस में भारतीय समाज के गौरवशाली अतीत की मधुर स्मृतियाँ संयोजी गयी है। देश की श्रेष्ठ पर्यावरणीय विरासत के प्रति समाज में जागरूकता पैदा करना भी मानसकार का लक्ष्य रहा है मानसकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि रामायणकालीन भारत में समाज में पेड़-पौधों, नदी-नालों व जलाशयों के प्रति लोगो में जैव सत्ता का भाव था। यही कारण है कि प्रकृति के अवयवों जैसे नदी, पर्वतों, पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं सभी का व्यापक वर्णन मानस में सर्वत्र मिलता है।

नदी पर्यावरण का प्रमुख घटक है । दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास प्राय: नदियों के तट पर हुआ था हमारे देश में कशी, मथुरा, प्रयाग, उज्जैन और अयोध्या जैसे आध्यात्मिक नगर नदियों के तटों पर स्थित हैं । गंगा हमारे देश में प्राचीनकाल से पूज्य रही है, गोस्वामीजी लिखते है गंगा का पवित्र जल पथ की थकान को दूर कर पथिक को सुख प्रदान करने वाला हैं।

गंगा सकल मुद मूला।

सब सुख करिनहरनि सब सूला।।

इसीलिए ईश्वर के स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी स्वयं गंगा को प्रणाम करते हैं तथा अन्य से भी वैसा ही कराते हैं।

उतरे राम देवसरि देखी।

कीन्ह दंडवत हरषु विसैषी।।

लखन सचिव सिय किए प्रनामा।

सबहि सहित सुखु पायउ रामा।।

मानस में गंगा यमुना तथा संगम के चित्रण के अतिरिक्त सरयू नदी का विवरण भी है। सरयू का निर्मल जल आसपास के वायु मण्डल को भी शुद्ध करता है ।

बहइ सुहावन त्रिविध समीरा।

भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।

इसके अतिरिक्त स्थान स्थान पर सई, गोदावरी, मंदाकिनी आदि नदियों का वर्णन रामचरितमानस में आया है। उस समय की सभी नदियां स्वच्छ एवं पवित्र जल से परिपूर्ण थी । यह सदानीरा नदिया बारह मास कल कल बहती थीं, जिसके किनारे रहने वाले मनुष्य, पशु-पक्षी सभी आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करते थें।

सरिता सब पुनीत जलु बहहिं।

खग मृग मधुप सुखी सब रहहिं।।

पर्वत प्रकृति के महत्वपूर्ण अवयव है। पर्वतराज, हिमालय भारतमाता के मुकुट के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित है। हिमालय के अतिरिक्त चित्रकूट पर्वत का चित्रण रामचरितमानस में विस्तृत रूप से आया है। पर्वत पर हरियाली थी एवं वन्य जीव ऋषि मुनियों के स्वाभाविक मित्र के रूप में आश्रमों में निवास करते थें।

जहँ जहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे।

उचित बास हि मधुर दीन्हें।।

चित्रकुट गिरि करहु निवासु।

तहँ तुम्हार सब भांति सुपासू।।

सैलु सुहावन कानन चारू।

करि केहरि मृग विहग बिहारू।।

मानस के अरण्य कांड में पम्पा सरोवर का वर्णन अत्यंत मनोहारी है।

प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से अनेक विकृतियां उत्पन्न होती हैं। प्रकृति के सानिध्य में न रहने वाले जीव जंतुओं का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है। जब श्रीरामचन्द्र जी की प्रार्थना पर समुद्र ध्यान नहीं देता है, तो वे क्रोधित होकर धनुष बाण उठाते है जिससे समस्त जलचर व्यथित हो उठाते है –

संधोनेउ प्रभु बिसीव कराला।

उठी उदधि उर अंतर जवाला।।

मकर उरग झष गन अकुलाने।

जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।

वास्तव में प्रकृति हमें स्वाभाविक रूप से अपने उपहार देती है। कृतज्ञ भाव से बिना छेड़छाड़ किये उन्हें ग्रहण करना चाहिए असीमित स्वार्थ से किया गया शोषण विकृति उत्पन्न करता है, जो अतंत: प्रलयकारी है। प्रकृति की इस प्रवृति को समुद्र के माध्यम से मानस में अभिव्यक्ति मिली है।

सागर निज मरजादा रहही।

डारहि रत्नहिं नर लहहीं।।

मानसकार ने दोहे व चौपाइयों के माध्यम से हमें पर्यावरण एवं प्रकृति के विविध आयामों से परिचित कराया है।

मानस में इस काल के स्वाभाविक प्रकृति चित्रण ने मनोहारी हरी-भरी धरती और वन्य-जीवन के प्रति प्रेममूलक संबंधों एवं पर्यावरण के संरक्षण में समाज के अंतिम व्यक्ति तक को भागीदार बनाये जाने का आदर्श समाज के सामने उपस्थित किया है। इस प्रकार प्रकृति के संतुलन में संस्कृति की शाश्वतता का युग संदेश हमारे लिए इस काल की महत्वपूर्ण विरासत है। मानसकार तुलसी ने मानस में पृथ्वी से लेकर आकाश तक सृष्टि के पांचो तत्वों की विस्तृत चर्चा की है। भारतीय मनीषा की यह मान्यता रही है कि मनुष्य शरीर मिट्टी, अग्नि, जल, वायु, और आकाश इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर बना है। इसका दूसरा आशय यह भी है कि प्रकृति निर्मल और पवित्र रहने पर प्राणीमात्र के लिए फलदायी और सुखदायी होती है।

छिती जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम सरीरा।।

Similar questions