रोमन साम्राज्य की सामाजिक विशेषताओं की विवेचना कीजिए
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रोमन साम्राज्य (Roman empire) की कहानी थोड़ी-बहुत विदित है। वह सामंतों और गुलामों की कहानी है। वहाँ नरबलि भी दी जाती थी। रोमन सभ्यता में एक यवन साधु और सिंह की गाथा है, जिसे बर्नार्ड शा ने अपने प्रसिद्घ नाटक 'आंद्रकुलिस और सिंह' (Androcles and the Lion) में चित्रित किया। यह कथा रोमन सभ्यता का प्रतिरूप है और रोमन साम्राज्य के अंतर्गत प्रथम तीन शताब्दियों में ईसाइयों पर अत्याचार भी दिखाती है।
ईसाई शहीदों की आखरी प्रार्थना
आंद्रकुलिस नामक ईसाई साधु को एक बार जंगल में एक सिंह मिला। अगले पैर में काँटा गड़ जाने के कारण वह लंगड़ाता था और पीड़ा से कराह उठता था। आंद्रकुलिस डर गया; पर जब उसे बार-बार पंजा चाटते और उस क्रिया में गड़ा कांटा दुखते देखा तो साहस कर कांटा निकाल दिया। कालांतर में ईसाइयों के विरूद्घ अभियान में वह पकड़ा गया और गुलामों की टोली में रोम लाया गया। यहाँ रोमन सम्राट, सामंतगण तथा अधिकारी बैठकर शस्त्रों से गुलामों की लड़ाई, रक्त की धार बहते, जीवित अंग-अंग कटते तथा मानव तड़पन पर क्रूरता की पैशाचिक लीला देखने, गुलामों के रक्त-पसीने से निर्मित सीढ़ीनुमा भवन (stadium) में इकट्ठा होते थे। इस प्रकार क्रूरतापूर्ण प्राण-हरण के विकृत खेल (sport) का मजा लूटते थे। जो लड़ने से इनकार करता, जैसे श्रद्घालु ईसाई, उन्हें अखाड़े में भूखे शेर के समक्ष छोड़ दिया जाता और लोग शेर को मनुष्य पर झपटते और चिथड़े कर खाते देखते। दुबले-पतले आंद्रकुलिस के लड़ने से इनकार करने पर उसे भूखे सिंह के समक्ष ढकेला गया। दहाड़कर सिंह अखाड़े में कूदा। लोगों में हिंसक स्फुलिंग की अतीव उत्सुकताएँ जागीं। पर सिंह ने अपने उपकारक की एकाएक पहचान कर उसे खाने के स्थान पर अपने नाखून सिकोड़कर पंजा उसकी ओर बढ़ा दिया। कहते हैं, इस पर आंद्रकुलिस और सिंह दोनों को जंगल की राह पर स्वतंत्र छोड़ दिया गया। साम्राज्य, युद्घ और गुलाम, इनका कार्य-कारण संबन्ध है। रोम पर उत्तर की बर्बर जातियों ने आक्रमण किया। रोमन साम्राज्य के दो टुकड़े-पूर्व (अनातोलिया तथा यूनान आदि) और पश्चिम (शेष यूरोप) हो गए। बाद में सेना में विदेशियों की भरती और देश में गुलामों की संख्या बढ़ने के कारण रोम का पतन हो गया। यह होते हुए भी रोम की यूरोप में बपौती विधि के क्षेत्र में वैसी ही है जैसे विज्ञान, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में यूनान की। लैटिन भाषा, जो संस्कृत से निकली, ने भी आधुनिक यूरोपीय विज्ञान को शब्दावली दी। विक्रम संवत् की छठी शताब्दी में रोमन सम्राट जस्टिनियन (Justinian) ने, जिसका स्थान कुस्तुनतुनिया (Constantinople) था, अपनी संहिता (Code Constitutionum) प्रवर्तित की, जो आधुनिक यूरोपीय विधि का एक स्त्रोत बनी। इसकी मनु के धर्मशास्त्र से तुलना करें तो लगता है, कितना पीछे ढकेल दिया गया मानव जीवन। रोमन विधि लगभग निर्बाध अधिकार (patria potesta) घर अथवा कुटुंब के मुखिया (pater familias) को देती थी। वही सभी जायदाद का और गुलामों का स्वामी था; उस जायदाद का भी जो उसकी पत्नी एवं पुत्र की थी। पुत्री भी विवाह तक उसके अधिकार में थी और विवाह के बाद पति के अधिकार में चली जाती थी। दूसरा था गुलाम वर्ग, जिनको कुछ अधिकार न थे और जो अपने स्वामी की संपत्ति थे। यह मनु की मूल धारणाओं के बिलकुल विपरीत था, जहाँ पुत्र को संयुक्त परिवार की संपत्ति में स्वत्व प्राप्त होता था और स्त्री-धन की व्यवस्था थी; सभी नागरिक थे। रोमन विधि सामंती या सम्राट-रचित थी; न कि ऋषि-मुनियों या विद्वानों (स्मृतिकारों) द्वारा प्रणीत, जैसा मनु का धर्मशास्त्र।