रास आखेटक निबंध की मूल आवेदन?
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मनुष्य से ईश्वर तक सभी परस्पर आखेट-लीला में संलग्न है। यह आखेट लीला कभी मधुर मोहक और कोमल दिखायी पड़ती है, तो कभी क्रूर प्राणघाती और आरण्यक ! किन्तु, अपने मूल-रूप में यह लीला एक द्वन्द्वातीत एवं निर्द्वन्द प्रक्रिया है हमारे प्राण-स्तर और मन-स्तर निरन्तर व्यक्त होती हुई। यह आखेट-लीला हमें विरोधी द्वन्द्वों के भ्रम देने लगती है, जब इसे हम अपने अनुभव की सीमित क्षमता में परिमित करते हैं। किन्तु जब साहित्य एक समर्थ माध्यम के रूप में हमारी अनुभूति को विस्तार देकर उस बिन्दु पर पहुँचा देता है, जिस बिन्दु पर यह आखेट लीला अपने मूल रूप में है, तो हम पाते हैं कि यह विशुद्ध ‘रस’ है-एक सहज निर्द्वन्द्व रसमयता।
‘रस-आखेटक’ के निबन्धकार ने रस की परिभाषा को एक नये आयाम में व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है। वह पाता है पुरानी पीढ़ी में सुन्दर के प्रति रोमाण्टिक मोह, तो नयी पीढ़ी में कदर्य और क्रुद्ध के प्रति रोमाण्टिक प्रतिबद्धता। इसलिए दोनों कूलों को अस्वीकार कर, इन निबन्धों में रस को मध्य-धार के बहते पानी का स्वस्थ और प्रसन्न-गम्भीर परिष्कार देने की चेष्टा की है सामर्थ्यवान प्रतिनिधि निबन्धकार कुबेरनाथ राय ने। रूप संरचना एवं प्रभावान्वित की दृष्टि से भी इन निबन्धों की संशिलष्ट निर्बन्धता अत्यत सघन रूप में सगुण और सटीक बन पड़ी है।
प्रस्तुत है ‘रस-आखेटक’ का यह नया संस्करण नये रूपाकार में।
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