राष्ट्रीय आंदोलन में भारतेन्दु हरिशचन्द्र के योगदान का उल्लेख करें।
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भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म सन् 1850 में हुआ था। जब भारतेंदु बालक थे तभी 1857 में स्वतंत्रता का पहला संघर्ष भारतवर्ष में आरंभ हुआ। पूरे देश में अनेक स्थानों पर इस आंदोलन की चिंगारी फैल चुकी थी लेकिन जल्दी ही इसे कुचल दिया गया। 1857 में शुरू हुई क्रांति का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा और परवर्ती समय में राष्ट्रवाद की चेतना बहुत अधिक फैली। इसके फलस्वरूप समाज पर भी इसका असर पड़ा और साहित्य पर भी। भारतेंदु का लेखन काल 1857 के बाद का ही है। वे सन् 1885 तक जीवित रहे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी सन्ï 1885 में हुई। यानी सन्ï 1885 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। इस राष्ट्रीयता की भावना से भारतेंदु हरिश्चंद्र भी अछूते न रहे। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस राष्ट्रवादी चेतना को न केवल रूपायित किया बल्कि आमजन को प्रेरित भी किया। इसके लिए वे कहीं व्यंजना का सहारा लेते हैं तो कहीं लक्षण का। भारतेंदु का समय वह काल था जबकि अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां पूरे देश में पांव पसार चुकी थीं। इसके बावजूद भारतेंदु अंग्रेजों की निंदा करने में कभी नहीं डरे।
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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भूमिका
भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन ब्रिटिश- भारतीय मुठभेड़ का परिणाम था। इसका जन्म पारम्परिक देषभक्ति से हुआ, जो भूमि, भाषा और पंथ से लगाव की एक सामाजिक स्तर पर सक्रिय भावना थी।1 किसी भी गुलाम देष में राष्ट्रीय चेतना नवजागरण के विकास का अगला चरण हुआ करती है। भारत में स्वतंत्रता संघर्ष की भावना अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दवाब से ही पनपी थी। अंग्रेजी शोषण के अखिल भारतीय स्वरूप के खिलाफ अखिल भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई थी।
बढ़ते नस्ली तनाव, धर्मान्तरण के डर और बेंथमवादी प्रषासकों के सुधारवादी उत्साह ने पढे़-लिखे भारतवासियों को मजबूर कर दिया कि वे ठहरकर अपनी संस्कृति पर एक नजर डालें। वरनार्ड कोहन ने इसे ‘संस्कृति का मूर्त्तन’ कहा है, जिससे षिक्षित भारतवासियों ने अपनी संस्कृति को ऐसी ठोस इकाई के रूप में निरूपित किया, जिसका आसानी से उद्धरण दिया जा सके, तुलना की जा सके और खास उद्देष्यों के लिए उपयोग किया जा सके। यह नई सांस्कृति परियोजना, जिसने अपने आपको अंषतः उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक सुधारों के माध्यम से व्यक्त किया, उसका सूत्र शब्द पुनर्जागरण में निहित था।2 इसका उद्देष्य भारतीय संस्कृति को शुद्ध करना और इस तरह उनकी पुनर्खोज करना था कि वह बुद्धिवाद, अनुभववाद, एकेष्वरवाद और व्यक्तिवाद के यूरोपीय आदर्षों से मेल खाए। भरतीय सभ्यता किसी भी तरह पष्चिमी सभ्यता से हीन नहीं है, बल्कि अपनी आध्यात्मिक सिद्धिओं में उससे भी श्रेष्ठत्तर है। इसी क्रम में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को नवजागरण के आधार के रूप में प्रस्तुत किया। वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार के क्रम में आयोजित सभाओं और गोष्ठियों में अक्सर प्रष्न उठाया करते थे कि वे (अंग्रेज शासक और हम शासित कैसे बन गये)
भारतेन्दु ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को हिन्दी पट्टी में तीव्र धार दी। उनकी राजनीतिक चेतना के परिणाम-स्वरूप देषभक्ति और राजभक्ति की धारा प्रवाहित हुई। भारतेन्दु का जिस समय आविर्भाव हुआ था उस समय भारत में 1857 की महान क्रांति हो चूकी थी। इस प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष को असीम पाषविक बल से कुचला जा चुका था, अंग्रेज सर्वत्र विजयी मुद्रा में थे। भारत पर कंपनी राज का अंत हो चुका था, महारानी विक्टोरिया का शासन था। इस समय भारतेन्दु ने बड़ी निपुणता से अपनी राष्ट्रभक्ति को राजभक्ति के आवरण में प्रस्तुत किया। समय के साथ भारतेन्दु के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया। आरम्भ में उन्होंने अंग्रेजों की धर्म निरपेक्षता की नीति, महारानी विक्टोरिया की घोषणा आदि से प्रसन्न होकर राजभक्ति परम कवितायें लिखीं लेकिन बाद में उन्होंने ब्रिटिष नीतियों का पूरजोर विरोध किया।
भारतेन्दु ने भारत के पतन को जिसे दादाभाई नरौजी ने ‘भारतीय गरीबी’ कहा है, को नजदीक से देखने की कोषिष की है। इसके कारणों को तलाष ने के क्रम में उन्होंने विक्टोरियाई मूल्यों से कड़ी टक्कर ली। अंग्रेजी षिक्षा के विरूद्ध अपनी मातृभाषा के प्रष्न को सामने रखा, (निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा के मूल), चार्ल्स ग्रांट जैसे आंग्लवादियों की आलोचना का करारा जबाव देते हुए भारतेन्दु ने भारतीय राष्ट्रीयता के अधःपतन के कारणों के रूप में विधवा विवाह, बाल विवाह, अनमेल विवाह, जातिभेद, वर्णभेद, साम्प्रदायिकता, छुआछूत और मद्यपान की पहचान की तथा अपनी स्पष्ट और बेवाक शैली में उन्होंने इन कुरीतियों पर जोरदार हमला किया। भारतेन्दु यह भलीभांति जानते थे कि भारत की दुर्दषा का मूल कारण अंग्रेजों की साम्राज्यवादी विस्तारवादी नीति एवं भारत का आर्थिक दोहन है। जिस समय दादाभाई नरौजी, आर0सी0दत्त, महादेव गोविन्द राणाडे तथा संवाद कौमुदी, संवाद सहचर, एवं आनन्द बाजार पत्रिका आदि ने भारत से धन के बर्हिगमन को एक आन्दोलन के रूप में उठाया था, उस समय भारतेन्दु अपनी नाटकों ‘भारत दुर्दषा’ और ‘अंधेर नगरी’ के माध्यम से काव्य के रूप में जनता के बीच ले जाने की कोषिष की। उन्होंने भारत में अंग्रेजों की मौजूदगी का अभिप्राय समझने के लिए अर्थव्यवस्था की बारीकियों और साम्राज्यवाद के सिद्धान्तों को समझना आवष्यक नहीं समझा। उन्होंने इसे सीधे-सीधे कविता के रूप में कह डाला।5
लेकिन साम्प्रदायिक सद्भावना के मूल में तत्कालीन राष्ट्रीय एकता की माँग ही अधिक प्रबल थी, सामाजिक और धार्मिक स्तर पर हिन्दु-मुस्लमानों को समन्वित करने की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। साम्प्रदायिक एकता के अभाव में हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन छिन्न-भिन्न हो जाता।6 भारतेन्दु ने सामाजिक तौर पर साम्प्रदायिक महत्त्व को लोगों को समझाया और राष्ट्रीय आन्दोलन में सभी को सम्मिलित होने की प्रेरणा दी तथा ‘सभी धर्म के वहीं सत्य सिद्धान्त न और विचारों’ कहकर साम्प्रदायिकता और कट्टरता का त्याग कर सहिष्णुता और उदारता को अपनाकर देषोद्धार में लग जाने के लिए प्रेरित किया।
इस प्रकार, भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण की मषाल जलाई। अपने पत्रों, निबन्धों, नाटकों, गद्यों और काव्य को इसके लिए औजार के रूप में इस्तेमाल किया। देष के अधःपतन को देखकर भारतेन्दु ने अतीत की गौरवगाथा के माध्यम से वर्त्तमान को उन्नतिषील बनाने की चेष्टा की। उन्होंने छुआछूत, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, नारी व्यक्तित्व आदि विषयों पर खुलकर लिखा, उसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना सिखाया। उन्होंने ‘नारी नर सम होहि’ लिखा तो ‘हिन्दू पॉलिटी’ पुस्तकें जनतंत्र पर भी लिखा।7 भारतेन्दु ने काव्य के सभी रूपों का इस्तेमाल भारत में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए किया।