Social Sciences, asked by Noeljiji6090, 11 months ago

राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों का संक्षिेप्त परिचय दीजिए।

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Answered by ItsShreedhar
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साम्प्रदायिकता -  </p><p></p><p>जब कोर्इ भी देश जैसे कि भारत विभिन्न धर्म के लोगों से बसा होता है, तब लोग अपने धर्म को सर्वोपरि मानते हुये दूसरे सम्प्रदाय के लोगों से बहुधा मानसिक रूप से नहीं जुड़ पाते हैं, इससे अप्रत्यक्ष रूप में राष्ट्र के लोग साम्प्रदायिक गुटों में बंटे रहते हैं और सम्प्रदाय को राष्ट्र से भी ऊपर मानने लगते हैं, तब समस्या और जटिल हो जाती है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता के सम्बंध को स्पष्ट करते हुये लिखा कि -’’आखिर धर्म क्या है? समाज को धारण करे, समाज को बनाये रखता है, वहीं धर्म है जो धर्म समाज को विभाजित करता है वह समाज में फूट डालता है, मतभेद पैदा करता है, घृणा व द्वेण फैलाता है, वह अर्धम है।’’</p><p></p><p>भाषावाद -  </p><p></p><p>किसी देश में विभिन्न भाषा-भाषी लोगों का निवास उस देश में राष्ट्रीयता की भावना के विकास में बाधक तत्व है, क्येांकि भारत जैसे देश में जब प्रदेशों का बंटवारा भाषा के आधार पर हुआ तब लोगों की निष्ठा अपने भाषा के प्रति अधिक बढ़ी और फलस्वरूप राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने वाली ‘हिन्दी भाषा’ जो कि राष्ट्र भाषा भी हैं, वह आज उपेक्षित है, और अधिकांश लोगों द्वारा प्रयोग में नही लायी जा रही है। अब तो यहां तक देखने में आता है, कि अहिन्दी भाषा राज्य हिन्दी का विरोध कर बंटे हुये है।</p><p></p><p>क्षेत्रीयता -  </p><p></p><p>जब राष्ट्र अनके राज्यों में बंटा होता है, तब सम्पूर्ण राष्ट्र पहले क्षेत्रीयता के आधार पर बट जाता है। किसी भी देश में राष्ट्र , राष्ट्रीयता की भावना के विकास में क्षेत्रीय कट्टरता भी एक बाधक तत्व है। क्षेत्रीयता का भारत जैसे देश में प्रभाव पर डॉ0 सम्पूर्णानन्दन ने टिप्पणी करते हुये लिखा कि- ‘‘आज दक्षिण भारत के लोगों के मुॅह से सुनने में आती है, कि हम हिन्दुस्तान से अलग होना चाहते हैं, पर जो धनाढ्य हैं वे सोचते है कि क्या अपने आजादी व सम्पत्ति की रक्षा कर सकेंगे। क्या तमिलनाडू वाले अलग होकर अपनी अधिक रक्षा कर सकते हैं। वह ऐसा करके अपने को भी डुबोयेंगे और दूसरों को भी ले डूबेंगे। इसलिये ऐसा सेचना बड़ी भयानक चीज है।’’’</p><p></p><p>जातिवाद -  </p><p></p><p>समाज का जातीय विखण्डन लोगों के हृदय को जोड़े नहीं पाया और इसने पूरे समाज को द्वेषपूर्ण बना दिया। ऊँच-नीच के भेदभाव ने हृदय को इतना कलुशित किया है कि समाज समवेत सुख व दुख में खड़ा नहीं हो पाता है तो राष्ट्र के लिये कैसे खड़ा होगा। भारत जैसे देश की यह सत्य कहानी है, इस दर्द को जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रकार व्यक्त किया कि- ‘‘मैं समझता हॅू कि भारत को एक मानने में सबसे खराब चीज यहां की जाति प्रथा है। हम आप बहस करते हैं, कभी जनतंत्र की, प्रजातंत्र की, समाजवाद की और किस किस की। इन सबमें चाहे जो लाजमी हो पर उसमें जाति प्रथा नहीं आ सकती क्योंकि यह राष्ट्र की हर तरक्की के प्रतिकूल है। जात-पात में रहते हुये न हम समाजवाद, न ही प्रजातंत्र को पा सकते हैं। यह प्रथा तो देश और समाजवाद को टुकड़े कर ऊपर नीचे और अलग-अलग भागो में बांटती है इस तरह वह बांटने का कार्य करती है और अब जाति प्रथा पुरानी व हानिकारक हो गयी।’’ आज हमारे देश की राजनीति का आधार जातिवाद है।</p><p></p><p> </p><p></p><p> \

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साम्प्रदायिकता - जब कोर्इ भी देश जैसे कि भारत विभिन्न धर्म के लोगों से बसा होता है, तब लोग अपने धर्म को सर्वोपरि मानते हुये दूसरे सम्प्रदाय के लोगों से बहुधा मानसिक रूप से नहीं जुड़ पाते हैं, इससे अप्रत्यक्ष रूप में राष्ट्र के लोग साम्प्रदायिक गुटों में बंटे रहते हैं और सम्प्रदाय को राष्ट्र से भी ऊपर मानने लगते हैं, तब समस्या और जटिल हो जाती है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता के सम्बंध को स्पष्ट करते हुये लिखा कि -’’आखिर धर्म क्या है? समाज को धारण करे, समाज को बनाये रखता है, वहीं धर्म है जो धर्म समाज को विभाजित करता है वह समाज में फूट डालता है, मतभेद पैदा करता है, घृणा व द्वेण फैलाता है, वह अर्धम है।’’ भाषावाद - किसी देश में विभिन्न भाषा-भाषी लोगों का निवास उस देश में राष्ट्रीयता की भावना के विकास में बाधक तत्व है, क्येांकि भारत जैसे देश में जब प्रदेशों का बंटवारा भाषा के आधार पर हुआ तब लोगों की निष्ठा अपने भाषा के प्रति अधिक बढ़ी और फलस्वरूप राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने वाली ‘हिन्दी भाषा’ जो कि राष्ट्र भाषा भी हैं, वह आज उपेक्षित है, और अधिकांश लोगों द्वारा प्रयोग में नही लायी जा रही है। अब तो यहां तक देखने में आता है, कि अहिन्दी भाषा राज्य हिन्दी का विरोध कर बंटे हुये है। क्षेत्रीयता - जब राष्ट्र अनके राज्यों में बंटा होता है, तब सम्पूर्ण राष्ट्र पहले क्षेत्रीयता के आधार पर बट जाता है। किसी भी देश में राष्ट्र , राष्ट्रीयता की भावना के विकास में क्षेत्रीय कट्टरता भी एक बाधक तत्व है। क्षेत्रीयता का भारत जैसे देश में प्रभाव पर डॉ0 सम्पूर्णानन्दन ने टिप्पणी करते हुये लिखा कि- ‘‘आज दक्षिण भारत के लोगों के मुॅह से सुनने में आती है, कि हम हिन्दुस्तान से अलग होना चाहते हैं, पर जो धनाढ्य हैं वे सोचते है कि क्या अपने आजादी व सम्पत्ति की रक्षा कर सकेंगे। क्या तमिलनाडू वाले अलग होकर अपनी अधिक रक्षा कर सकते हैं। वह ऐसा करके अपने को भी डुबोयेंगे और दूसरों को भी ले डूबेंगे। इसलिये ऐसा सेचना बड़ी भयानक चीज है।’’’ जातिवाद - समाज का जातीय विखण्डन लोगों के हृदय को जोड़े नहीं पाया और इसने पूरे समाज को द्वेषपूर्ण बना दिया। ऊँच-नीच के भेदभाव ने हृदय को इतना कलुशित किया है कि समाज समवेत सुख व दुख में खड़ा नहीं हो पाता है तो राष्ट्र के लिये कैसे खड़ा होगा। भारत जैसे देश की यह सत्य कहानी है, इस दर्द को जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रकार व्यक्त किया कि- ‘‘मैं समझता हॅू कि भारत को एक मानने में सबसे खराब चीज यहां की जाति प्रथा है। हम आप बहस करते हैं, कभी जनतंत्र की, प्रजातंत्र की, समाजवाद की और किस किस की। इन सबमें चाहे जो लाजमी हो पर उसमें जाति प्रथा नहीं आ सकती क्योंकि यह राष्ट्र की हर तरक्की के प्रतिकूल है। जात-पात में रहते हुये न हम समाजवाद, न ही प्रजातंत्र को पा सकते हैं। यह प्रथा तो देश और समाजवाद को टुकड़े कर ऊपर नीचे और अलग-अलग भागो में बांटती है इस तरह वह बांटने का कार्य करती है और अब जाति प्रथा पुरानी व हानिकारक हो गयी।’’ आज हमारे देश की राजनीति का आधार जातिवाद है। \

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shaikhayan

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