रैदास के दोहे हमें सामाजिक भेदभाव दूर करने का संदेश देते हैं " इस कथन के संदर्भ मे अपने 222 लिखिए
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रैदास के दोहे हमें सामाजिक भेदभाव दूर करने का संदेश देते हैं । इसकी पुष्टि निम्नलिखित दोहो के अर्थो से हो सकती है ।
रैदास एक ही बूँद से, भयो सब विस्तार ।
मुर्ख है जो करे वर्ण अवर्ण विचार ।।
इसके माध्यम से संत रैदास उस #कृष्ण को #मुर्ख बता रहे है । जो इंसान को अलग अलग बांटता है, जो गीता में इंसानो में ही भेद-भाव कर उन्हें अलग-अलग वर्ण अवर्ण जातियों में बांटता है । जबकि रैदास के अनुसार इंसान सभी एक ही है ।
तोडू न पाती, पूंजू न देवा ।
बिन पत्थर, करें रैदास सहज सेवा ।।
अर्थ- बिना किसी फूल माला, पत्तियां तोड़े बिना, न ही किसी देवी-देवता की पूजा करे बिना, न ही इन पथरों के भगवानों को पूजे बिना अर्थात पूजा कर्मकांड पाखंड अंधविस्वास के बिना इंसान को केवल सत्य कर्म मानवता की सहज सेवा करनी चाहिए. संसार में प्रेम ,भाईचारा, नैतिकता, मानवता ही सबसे बड़ी सेवा है ।
मेरी जाति कुट बांढला,ढोर ढुंवता नित ही बनारस आसा पासा।
अब विप्र प्रधान तिहि करें दंडवति, तोरे नाम सरणाई रैदासा ।।
मैं रैदास नीची जाति का समझा जाता हूँ तथा मेरे जैसे लोग रोजाना बनारस के आसपास मरे हुए पशु ढोते है. अब देखो विप्र(ब्राह्मणों) का प्रधान(रामानंद) मुझे दण्डवत प्रणाम कर रहा है और मेरी शरण में आता है ।”रैदास परचई” में इस किस्से का वर्णन है की रामानन्द ने गुरु रैदास व कबीर से धर्म पर बहस की और उनसे हार गये. तत्पश्चात उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते है ।