Hindi, asked by simransadnani02, 8 months ago

राधब ने नानी के कमरे में बिस्तर के नीचे एक
संदक दैनावसकमै नानी के बचपन की
कुछ खिलौने सखियी कैपत्रमधीही
आदी
थै। वह नानी के साथ बेठकरसवक्त
और उसमेरखेचीजो की
चर्चा
कसा है।
दी गाई, परियोति पर दृश्य का वर्णन साद
रूप में कीजिए।​

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Answered by Anonymous
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Answer:

बचपन की बातों में नानी के या मामा के घर की ही बातें ही क्यों ज्यादा सुनने को मिलती हैं, कभी बुआ या चाचा के घर के किस्से क्यों नहीं ज्यादा सुनने या पढ़ने को मिलते?

कुछ दशक पहले हमारे समाज में अधिकतर संयुक्त परिवार का बोलबाला था। अभी भी संयक्त परिवार में सामूहिक निर्णय में 'स्थापित सदस्य' का बोलबाला रहता है। यह स्थापित सदस्य अन्य सदस्यों की समस्याएं सुनकर फैसला सुनाते है। यह स्थापित सदस्य वह बड़े होते है जिनका घर में दशकों से वर्चस्व स्थापित है(जिसकी बात नहीं टाली जा सकती)। सभी परिवारों में नवविवाहित जोड़ों की शुरुवात तो लगभग एकसामान होती है। इस प्रश्न के पहले से अनेक सही जबाब मौजूद है, अतः हम कुछ लकीर से हटकर एक अलग बिंदु पर इस की समीक्षा करते है। हरेक समीक्षक का सच्चाई देखने समझने का अपना नजरिया होता है। आपसी नाते-रिश्ते की जटिलता पर अपने अनुसार एक बनी बनाई लकीर पर सोच रखने वालों विद्वान पाठकों को यह समीक्षा पसंद ना आये तब उनसे माफ़ी चाहूंगा।

हमारे पुरुष प्रधान देश में विवाह के बाद कहावत प्रचलित है सौ दिन सास के! विवाह के दो दिलों का मिलान ही नहीं, यह एक व्यक्ति का नए परिवार में प्रवेश का समारोह भी है। फिर 'आगे चलकर' (साल दो साल में) परिवार के पूर्व सदस्य और नए बहु का आपसी रिश्ता तय करता है घर के विचारों की अगली दिशा। इसके साथ ही शुरू होती है वर्चस्व स्थापित करने की पहल, समाज के भिन्न घरक भी इस पहल में परोक्ष्य रूप से भागिदार होते है। इसके तहत कुछ प्रचलित शब्द भी जुड़े होते है - जैसे कान भरना, मिर्च मसाला लगाकर बातों को दूसरे के समक्ष पेश करना, एक दूसरे के संवाद में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना, एक दूसरे को शह और मात देना, इत्यादि शस्त्र इस वर्चस्व के खेल में जमकर उपयोग होते है। शायद हजार परिवारों में एक दो ही परिवार होते है, जहाँ यह सास-बहु का समीकरण सरल होता है। और हाँ, इस विषय पर कहानिया घड़कर टीवी मलिका वाले समाज में अरबों रुपये भी कमाते है। सीधी बहु और चालबाज़ सास और बेटियां या इसके विपरीत, सब मसाला लगाकर देखना लोगों को काफी भाता है। याने इस सास-बहु के रिश्ते का जमकर व्यापारीकरण भी हो चूका है!

नए सदस्य (बहु) को अपने वर्चस्व के अधीन करने, उसके निजी निर्णय में दखल देकर उसे अनुमति प्राप्त करने वाली आज्ञाकारी बनाना एकमात्र हेतु होता है! वही दूसरी तरफ, स्वतंत्र विचार रखने वाली बहु भी, कुछ समय में घर की बुनियादी संरचना, निर्णय करने वाले स्थापित सदस्यों की खुबिया कमियां और गुण दोष का समय के साथ आकलन करती है। यहाँ अडोसी-पड़ौसी, नाते-रिश्तेदार अपनी प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका 'हक़' से निभाते है। घर सदस्य नई बहुरानी को 'अपने अनुकूल' करने की कोशिश में, उसके हितैषी बनकर उसे स्वयं के निजी विचार अवगत कराते है। फिर आहिस्ता आहिस्ता एक साल बाद, यह बहु इन सब में अपना स्थान खोज कर समन्वय साधने की लगातार ईमानदार कोशिश करती है।

लेकिन कभी कभी इस वर्चस्व स्थापना करने के खेल में संयुक्त परिवार में 'घर के संस्कार, परंपरा, रीती इन शब्दों की आड़ में कुछ सदस्य जानबूझकर या अनजाने में उस पर अधिक पाबंदिया लगाकर, टोकाटोकी कर, नयी बहुरानी को कहा वह चुपचाप सुननेवाली अपेक्षित करते है।अगर बहु प्रतिकार करती पायी जाती है तब नया अस्त्र लाया जाता हैं- इसमें जलीकटी बातें, उपहास करना, बहु के घर का मजाक उड़ाना इत्यादि भी हो जाता है। इस खेल में जब कोई हार नहीं मानता तब तो सीरियल के समान कहानी आगे भावना प्रधान हो जाती है। लेकिन ‘अंततोगत्वा’ एक नयी बहु - एक दिन घर की ‘कर्ताधर्ता’ बन ही जाती है। ‘तब’ पुराने खेल दिखाने वालों के बुरे दिन आ जाते है। यह बहु के वर्चस्व स्थापना का कालखंड एक दशक भी हो सकता है. और कभी तो उससे अधिक।

जब एक भुगतने वाली बहु कर्ताधर्ता हो जाती है, तब वह वहीं निर्णय करती है और सरल है, उस घर की पारिवारिक रिश्तों की स्थिति आप के प्रश्न के अनुसार दिखने लगाती है।

जहाँ शुरुवाती दिनों में समन्वय और प्रेम से रिश्ते बनाये जाते है, जिन परिवारों में बहु के शुरुवाती दिनों में घर में वर्चस्व रखने की लड़ाईया नहीं होती, वहां चाचा, बुवा भी आगे चलकर प्रासंगिक बने रहते है। आप को यह मीमांसा शायद अतिरंजित या काल्पनिक लग सकती है। लेकिन इस रिश्तों के बदलते मायने का शोधपूर्वक अभ्यास किया है। मैंने स्वयं कई वृधाश्रम में कई बुजुर्ग (एक दर्जन से अधिक) महिलाओं को देखा है, जो तीन दशक पूर्व घर की सर्वेसर्वा थी,कालखंड बदला और आज वे वहां ‘अकेली’ है। यह समझने के लिए आपको विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। केवल ऑंखें खुली रख एक व्यक्ति के चार पांच दशक के जीवन का आकलन करना है।

रिश्ते चाहे खून के हो, जब तक उनमें समन्वय, सन्मान, आदर प्रेम की नींव हो तब तक सही है, अन्यथा वह पहला मौका आते ही दरकने लगते है।

रिश्तों में 'चहरे की मुस्कान' उसके स्वस्थ होने का सटीक पैमाना नहीं है, उन्हें समझने के लिए तो आपसी प्रेम है या नहीं यह देखना जरूरी है। प्रेम कभी भी आईने में नहीं दिखाई देता, वह हमारे आपसी व्यवहार में, बातचीत में प्रक्रिया में झलकता है। सच्चे प्रेम में स्वार्थ नहीं होता, वहां समर्पण, न्योछावर होने की भावना होती है। घर के सदस्यों में वास्तविकता वह नहीं होती जो दिखती है। वैसे तो एक माँ उसके सभी बेटों को एकसमान देखती है, लेकिन अगर बचपन में पसंदीदा खाना उसने एक बच्चे की थाली में दूसरे से अधिक परोसती है तब यह बात भी वह बच्चा देखता तो अवश्य है।

इस लम्बे उत्तर की अब निष्पक्ष विचार से समीक्षा करते है। नाना-नानी या दादा-दादी या सभी इनमें से भविष्य में कौन लम्बी रेस का घोडा बनकर उभरता है,यह तो हमारे ही स्वभाव पर निर्भर है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होये।

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