rahasay savar sansakruit
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means I can't understand the question... sorry
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hilu ❤️
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काया की जब जैसी स्थिति हो, तब उससे वैसा ही काम लेना चाहिए-यही स्वर योग का गूढ़ रहस्य है। इतना होते हुए भी यह मनुष्य की सृजन शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन उसे प्रोत्साहित ही करता है। स्वरशास्त्र के अनुसार प्राण के आवागमन के मार्गों को नाड़ी कहते है…
काया की जब जैसी स्थिति हो, तब उससे वैसा ही काम लेना चाहिए-यही स्वर योग का गूढ़ रहस्य है। इतना होते हुए भी यह मनुष्य की सृजन शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन उसे प्रोत्साहित ही करता है। स्वरशास्त्र के अनुसार प्राण के आवागमन के मार्गों को नाड़ी कहते है…स्वर योग शरीर क्रियाओं को संतुलित और स्थिर रखने की एक प्राचीन विधा है। इससे स्वस्थता को अक्षुण्ण बनाए रखना सरल -संभव हो जाता है। योग के आचार्यों के अनुस्वार यह एक विशुद्ध विज्ञान है, जो यह बतलाता है कि निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त भौतिक शक्तियों से मानव शरीर किस प्रकार प्रभावित होता है। सूर्य, चंद्र अथवा अन्यान्य ग्रहों की सूक्ष्म रश्मियों द्वारा शरीरगत परमाणुओं में किस प्रकार की हलचल उत्पन्न होती है। काया की जब जैसी स्थिति हो, तब उससे वैसा ही काम लेना चाहिए-यही स्वर योग का गूढ़ रहस्य है। इतना होते हुए भी यह मनुष्य की सृजन शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन उसे प्रोत्साहित ही करता है। स्वरशास्त्र के अनुसार प्राण के आवागमन के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाडि़यों की संख्या 72 हजार मानी जाती है। इनको नसें न समझना चाहिए। यह प्राणचेतना प्रवाहित होने के सूक्ष्मतम पथ हैं। नाभि में इस प्रकार की नाडि़यों का एक गुच्छक है। इसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, गांधारी, हस्तिजिह्वा, पूषा यशस्विनी, अलंबुसा, कुहू तथा शंखिनी नामक दस नाडि़यां हैं। यह वहां से निकलकर देह के विभिन्न हिस्सों में चली जाती हैं। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख माना गया है। स्वर योग में इड़ा को चंद्र नाड़ी या चंद्र स्वर भी कहते हैं। यह बाएं नथुने में है पिंगला को सूर्य नाड़ी अथवा सूर्य कहा गया है। यह दाएं नथुने में है। सुषुम्णा को ‘वायु’ कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य स्थित है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चंद्र नियमित रूप से अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं। शेष अन्य नाडि़यां भी भिन्न-भिन्न अंगों में प्राण संचार का कार्य करती हैं। गांधार नाक में, हस्तिजिह्वा दाहिनी आंख में, पूषा दाएं कान में, यशस्विनी बाएं कान में, अलंबुसा मुख में, कुहू लिंग प्रदेश में और शंखिनी गुदा में जाती है। हठयोग में नाभिकंद अर्थात कुंडलिनी का स्थान गुदा से लिंग प्रदेश की ओर दो अंगुल हटकर मूलाधार चक्र में माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि गुदामूल में नहीं, वरन उदर मध्य ही हो सकती हैं। इसीलिए यहां नाभिप्रदेश का तात्पर्य उदर भाग मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष संबंध उदर से ही है। योग विज्ञान इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य को नाभि तक पूरी सांस लेनी चाहिए। वह प्राणवायु का स्थान फेफड़ों को नहीं, नाभि को मानता है। गहन अनुसंधान के पश्चात अब शरीर शास्त्री भी इस बात को स्वीकारते हैं कि वायु को फेफड़ों में भरने मात्र से ही श्वास का काम पूरा नहीं हो जाता। उसका उपयुक्त तरीका यह है कि उससे पेड़ू तक पेट सिकुड़ता और फैलता रहे एवं डायफ्राम का भी साथ-साथ संचालन हो। तात्पर्य यह कि श्वास का प्रभाव नाभि तक पहुंचना जरूरी है। इसके बिना स्वास्थ्य लड़खड़ाने का खतरा बना रहता है। इसीलिए सामान्य श्वास को योग विज्ञान में अधूरी क्रिया माना गया है। इससे जीवन की प्रगति रुकी रह जाती है। इसकी पूर्ति के लिए योग के आचार्यों ने प्राणायाम जैसे अभ्यासों का विकास किया।
mark ❤️