Rahim ke dohe EXPLANATION
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1.रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥
शब्दार्थ:-
चटकाय = चटकना, टूटना ।
परि = पड़ना, पड़ जाना ।
अर्थ: रहीम जी कहते हैं कि प्रेम रूपी धागे को कभी भी झटके से तोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि जब वह एक बार टूट जाता है। तो उसे दोबारा जोड़ने पर उसमें गांठ ही पड़ती जाती है। अर्थात प्रेम रूपी बंधन उस नाजुक धागे के समान है। जिसमें जरा सा तनाव (आपसी टकराव) पड़ने पर वह टूट जाता है और एक बार टूट जाने पर दोबारा उसे जोड़ने पर उसमें गांठ ही पड़ती है। जिससे कि वह रिश्ता फिर पहले जैसा नहीं रहता।
Answer:
दोहे पाठ की व्याख्या
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥
शब्दार्थ –
चटकाय – झटके से
परि जाय – पड़ जाती है
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि प्रेम का बंधन किसी धागे के समान होता है, जिसे कभी भी झटके से नहीं तोड़ना चाहिए बल्कि उसकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम का बंधन बहुत नाज़ुक होता है, उसे कभी भी बिना किसी मज़बूत कारण के नहीं तोड़ना चाहिए। क्योंकि जब कोई धागा एक बार टूट जाता है तो फिर उसे जोड़ा नहीं जा सकता। टूटे हुए धागे को जोड़ने की कोशिश में उस धागे में गाँठ पड़ जाती है। उसी प्रकार किसी से रिश्ता जब एक बार टूट जाता है तो फिर उस रिश्ते को दोबारा पहले की तरह जोड़ा नहीं जा सकता।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहै कोय॥
शब्दार्थ –
निज – अपने
बिथा – दर्द
अठिलैहैं – मज़ाक उड़ाना
बाँटि – बाँटना
कोय – कोई
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि अपने मन की पीड़ा या दर्द को दूसरों से छुपा कर ही रखना चाहिए। क्योंकि जब आपका दर्द किसी अन्य व्यक्ति को पता चलता है तो वे लोग उसका मज़ाक ही उड़ाते हैं। कोई भी आपके दर्द को बाँट नहीं सकता। अर्थात कोई भी व्यक्ति आपके दर्द को कम नहीं कर सकता।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
शब्दार्थ –
मूलहिं – जड़ में
सींचिबो – सिंचाई करना
अघाय – तृप्त
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि एक बार में केवल एक कार्य ही करना चाहिए। क्योंकि एक काम के पूरा होने से कई और काम अपने आप पूरे हो जाते हैं। यदि एक ही साथ आप कई लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करेंगे तो कुछ भी हाथ नहीं आता। क्योंकि आप एक साथ बहुत कार्यों में अपना शत-प्रतिशत नहीं दे सकते। रहीम कहते हैं कि यह वैसे ही है जैसे किसी पौधे में फूल और फल तभी आते हैं जब उस पौधे की जड़ में उसे तृप्त कर देने जितना पानी डाला जाता है। अर्थात जब पौधे में पर्याप्त पानी डाला जाएगा तभी पौधे में फल और फूल आएँगे।
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥
शब्दार्थ –
अवध – रहने लायक न होना
बिपदा – विपत्ति
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जब राम को बनवास मिला था तो वे चित्रकूट में रहने गये थे। रहीम यह भी कहते हैं कि चित्रकूट बहुत घना व् अँधेरा वन होने के कारण रहने लायक जगह नहीं थी। परन्तु रहीम कहते हैं कि ऐसी जगह पर वही रहने जाता है जिस पर कोई भारी विपत्ति आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि विपत्ति में व्यक्ति कोई भी कठिन-से-कठिन काम कर लेता है।
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥
शब्दार्थ –
अरथ – अर्थ
आखर- अक्षर, शब्द
थोरे – थोड़े, कम
व्याख्या – रहीम जी का कहना है कि उनके दोहों में भले ही कम अक्षर या शब्द हैं, परंतु उनके अर्थ बड़े ही गहरे और बहुत कुछ कह देने में समर्थ हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई नट अपने करतब के दौरान अपने बड़े शरीर को सिमटा कर कुंडली मार लेने के बाद छोटा लगने लगने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी के आकार को देख कर उसकी प्रतिभा का अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए।
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥
शब्दार्थ –
धनि – धन्य
पंक – कीचड़
लघु – छोटा
उदधि – सागर
पिआसो – प्यासा
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि कीचड़ में पाया जाने वाला वह थोडा सा पानी ही धन्य है क्योंकि उस पानी से न जाने कितने छोटे-छोटे जीवों की प्यास बुझती है। लेकिन वह सागर का जल बहुत अधिक मात्रा में होते हुए भी व्यर्थ होता है क्योंकि उस जल से कोई भी जीव अपनी प्यास नहीं बुझा पता। कहने का तात्पर्य यह है कि बड़ा होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता यदि आप किसी की सहायता न कर सको।
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥
शब्दार्थ –
नाद – संगीत की ध्वनि
रीझि – मोहित हो कर, खुश हो कर
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जिस प्रकार हिरण किसी के संगीत की ध्वनि से खुश होकर अपना शरीर न्योछावर कर देता है अर्थात अपने शरीर को उसे सौंप देता है। इसी तरह से कुछ लोग दूसरे के प्रेम से खुश होकर अपना धन इत्यादि सब कुछ उन्हें दे देते हैं। लेकिन रहीम कहते हैं कि कुछ लोग पशु से भी बदतर होते हैं जो दूसरों से तो बहुत कुछ ले लेते हैं लेकिन बदले में कुछ भी नहीं देते। कहने का अभिप्राय यह है कि यदि कोई आपको कुछ दे रहा है तो आपका भी फ़र्ज़ बनता है कि आप उसे बदले में कुछ न कुछ दें।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
शब्दार्थ –
बिगरी – बिगड़ी
फाटे दूध – फटा हुआ दूध
मथे – मथना
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि कोई बात जब एक बार बिग़ड़ जाती है तो लाख कोशिश करने के बावजूद उसे ठीक नहीं किया जा सकता। यह वैसे ही है जैसे जब दूध एक बार फट जाये तो फिर उसको मथने से मक्खन नहीं निकलता। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें किसी भी बात को करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए क्योंकि एक बार कोई बात बिगड़ जाए तो उसे सुलझाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
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