rajputo ke uday ka alochnatmak vivran dijiye
Answers
राजपूत शब्द राजपुत्र (संस्कृत) से आया है जिसका अर्थ है राजा का परिवार। पूरे उत्तर भारतीय इतिहास में, राजपूत छठी से बारहवीं शताब्दी में प्रभावशाली थे, जिन्हें राजपूत काल भी कहा जाता है। विभिन्न प्रमुख राजपूत उपशाखाएं हैं, जिन्हें वंश या वामश के नाम से जाना जाता है।
Explanation:
- राजपूतों को तीन मुख्य वंशों में विभाजित किया गया है
- रघुवंशी / सूर्यवंशी ("सौर वंश" के वंशज), राम के माध्यम से अवतरित हुए।
- सोमवंशी / चंद्रवंशी ("चंद्र वंश के वंशज"), कृष्ण के माध्यम से अवतरित हुए।
- अग्निवंशीय ("अग्नि वंश" के वंशज), "अग्निपाला" से अवतरित हुए।
- इनमें से प्रत्येक "वंश" को विभिन्न कुल / वंशों में विभाजित किया गया था, जिनके पास "सामान्य पुरुष पूर्वज" से प्रत्यक्ष "पितृवंश" है जो उस वंश से संबंधित थे। इन "36 मुख्य कुलों" में से कुछ को "शाक" या "शाखाओं" में उप-विभाजित किया गया है, फिर से उसी "पितृलोक के सिद्धांत" को केंद्रित किया गया है।
- प्रमुख "सूर्यवंशी वंश" बैस, अमेठीया, गौर, चत्तर, मिन्हास, कछवाहा, पटियाल, पखराल, नारू, पुंडीर, राठौर, और सिसोदिया थे।
- प्रमुख "चंद्रवंशी कुलों" में भाटी, बछल, चंदेल, भंगालिया, जादौन, चुडासमा, जर्राल, जडेजा, पहोरे, कटोच, सोम, रायजादा, और तोमरस थे।
- प्रमुख "अग्निवंशी वंश" चौहान, भाल, चावड़ा, डोडिया, नागा, मोरी, सोलंकी, और परमारस हैं।
- इतिहासकारों ने अपने मूल के बारे में "कई सिद्धांतों" को प्रतिपादित किया है।
उनके मूल सिद्धांत मुख्य सिद्धांत हैं:
विदेशी मूल का सिद्धांत
- राजपूत इस सिद्धांत के अनुसार साक, कुषाण, हूण आदि जातियों के वंशज हैं। इस दावे का समर्थन किया गया था क्योंकि राजपूत बहुत हद तक साक और हूणों की तरह थे जो दोनों अग्नि-पूजक थे।
- कनिंघम "कुषाण" के "वंश" के रूप में राजपूतों का वर्णन किया था।
- टॉड के अनुसार, राजपूत "साइथियन मूल" के हैं। सिथियन शब्द का अर्थ "हूण" और अन्य संबंधित जनजातियों से है जिन्होंने भारत में 5 वीं और 6 वीं शताब्दी में प्रवेश किया था
- ए. एम टी. जैक्सन ने राजपूतों की दौड़ को खजरा के रूप में वर्णित किया था जो 4 वीं शताब्दी में अर्मेनिया में रहते थे। जैसा कि हूणों ने भारत पर आक्रमण किया था, खजरस भारत में भी पहुँचे थे और वे 6 ठी शताब्दी में यहाँ आकर बस गए थे। इन खज्जरों को भारतीय गुर्जर के नाम से जाना जाता था।
- 10 वीं शताब्दी में गुजरात को गुर्जर कहा जाता था। कुछ विद्वानों का सोचा था Gurjaras भारत में आया और अफगानिस्तान से भारत के विभिन्न भागों में बस गए।
मूल का काशीरिया सिद्धांत
गौरी शंकर ओझा, वैद्य, और वेद व्यास ने "विदेशी सिद्धांत" का समर्थन नहीं किया। गौरीशंकर ओझा बाहर है कि मेवाड़, जयपुर और बीकानेर राजपूत के शासकों शुद्ध Aryans थे और सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजवंशों के वंशज एक इतिहासकार अंक ..
उन्होंने विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार अपने दृष्टिकोण का समर्थन किया था:
- राजपूतों के बीच आग पूजा विदेशी दौड़ से आर्यों और नहीं से आया था।
- यज्ञ और बलिदान की परंपराएं आर्यों के बीच मौजूद थीं।
- आर्यों की तरह राजपूतों की "शारीरिक विशेषता"।
मिश्रित मूल सिद्धांत
वीए स्मिथ और डॉ। डीपी चटर्जी जैसे इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकाला था कि कुछ ख़ास कट्टरपंथी हूण, शक, कुषाण आदि जैसे विदेशी जातियों के वंशज हैं। वे अपनी तलवार से युद्ध के मैदान में बेहतर तरीके से लड़ने में सक्षम थे और समय के साथ राजपूतों ने अपना रूप बदल लिया था। नाम और खुद को "राजपूत" कहने लगे
अग्निकुला सिद्धांत
यह विचार चंदबरदाई की पुस्तक 'पृथ्वीराज रासो' से आया है, जिसमें कहा गया है कि राजपूतों की उत्पत्ति माउंट पर "बलि की आग" से हुई थी। आबू पर्वत। चूँकि परशुराम ने सभी कत्रियों को नष्ट कर दिया था, इसलिए ब्राह्मण स्वतंत्र थे। उनकी रक्षा के लिए पृथ्वी पर कोई भी क्षत्रिय नहीं थे। इसलिए, चालीस दिनों के लिए, ब्राह्मणों ने पवित्र अग्नि जला दी। आखिरकार, उनकी सुरक्षा के लिए, भगवान ने उन्हें राजपूतों के साथ प्रदान किया। इस यज्ञ अग्नि से चार वीर पैदा हुए थे और 4 वीरों के वंशज राजपूत के 4 परिवार थे।
- चौहान
- प्रतिहार
- पारमारस
- सोलंकिस
इन चार अग्निकुला कुलों ने अपनी "शक्ति" पश्चिमी भारत और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में स्थापित की थी।
- प्रतिहारों ने कन्नौज क्षेत्र में शासन किया था
- चौहानों ने मध्य राजस्थान पर शासन किया था।
- सोलंकियों ने कथैवार क्षेत्र पर शासन किया।
- मालवा क्षेत्र में पारमारों की सत्ता थी।
Answer:
9वीं 10वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में एक नये शासक वर्ग का उदय हुआ, जो राजपूत कहलाये। मुख्यतः यह राजपूत राजवंश प्रतिहार साम्राज्य के अवशेषों से उभरे थे। 10वीं से 12वीं शताब्दी तक उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत के एक बढ़े क्षेत्र पर इनका राजनैतिक वर्चस्व बना रहा। उनके आधीन एक नई राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था का विकास हुआ और आर्थिक जीवन में भी नये लक्षण प्रकट हुए।
Explanation:
1.विदेशी मूल की अवधारणा- कई इतिहासकार (टोड, क्रूक) राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारियों, विशेषकर शक् के वंशजों के रूप में देखते हैं। क्योंकि इनके संस्कार और कर्मकाण्ड एक-दूसरे से काफी मिलते हैं। गुप्त साम्राज्य के पतन के काल में कई मध्य एशियाई जनजातियां उत्तरी और मध्य भारत में आकर बसीं। पंजाब, राजस्थान, और गांगेय घाटी के क्षेत्रों में इन्होनें धीरे-धीरे अपनी सत्ता सुदृढ़ कर ली। समय बीतने के साथ यह भारतीय समाज और धर्म का अंग बन गये और नये शासक वर्ग के रूप में उनकी पहचान बनी। यही राजपूत कहलाये।
2.अग्निकुल का मिथक- हर्षचरित में चर्चा मिलती है कि आबु पर्वत के निकट ऋषि वशिष्ठ ने एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। इसके कारणों के संबंध में दो विवरण मिलते हैं। एक तो यह कि विश्वामित्र ने वशिष्ठ की कामधेनु गाय को ले लिया था। उसकी वापसी के लिए वशिष्ठ ने यज्ञ का अनुष्ठान किया और इस यज्ञ अग्नि से प्रकट हुए योध्दा ने कामधेनु की वापसी में वशिष्ठ की मदद की। वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर उस योध्दा को परमार (प्रतिहार) की उपाधि दी। इसी योध्दा की संतान राजपूत कहलाये।
3.जनजातीय मूल की अवधारणा- गुप्तकाल में आट्विक राज्यों की समुद्रगुप्त द्वारा विजय की चर्चा से हम परिचित हैं। परवर्ती काल में भी उसी प्रकार जनजातीय सरदारों को या आट्विक राजाओं को पराजित करने और अधीनस्थ शासक के रूप में बनाय़े रखने का क्रम चलता रहा। धीरे-धीरे इन अधीनस्थ शासकों एवं अधिकारियों ने अपनी सत्ता सुदृढ़ कर ली और स्वतंत्र शासक बन बैठे। इस क्रम में उन्हें भी शासक होने के कारण क्षत्रिय मान गया। चूंकि यह गैर- आर्य मूल के थे इसलिए इनके शुध्दिकरण और हिंदू समाज की उच्च जाति में अंगीकार करने के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठान किए गए होंगे। अग्निकुल का मिथक संभवतः जनजातीय शासकों के भी शुध्दिकरण और हिंदू समाज में विधिवत शासक वर्ग (क्षत्रिय जाति) के रूप में स्वीकृति पाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। गोंड़, भील, मीना, आदि इसी प्रकार राजपूत शासकों की श्रृंखला में शामिल हुए।
4. क्षत्रिय की मूल अवधारणा- इस संभावना को भी द्यान में रखना आवश्यक है कि कुछ राजपूत राजवंश प्राचीन कालीन क्षत्रिय शासकों के वंशज थे। इस विचार को गौरीशंकर ओढा ने प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि राजपूतों में प्रचलित रीति-रिवाज और सामाजिक तौर-तरीके प्राचीन कालीन क्षत्रियों के समान थे। उनकी शारीरिक संरचना को भी ओझा ने क्षत्रियों के अनुरूप बताया है। अनेक अभिलेखों और प्रशस्तियों में भी विभिन्न राजवंशों ने अपने आप को पौराणिक सूर्यवंशी और चंद्रवंशी शासकों के साथ संबंधित सिध्द किया है। इस विचार की पुष्टि में कठिनाई यह है कि प्राचीन सूर्यवंशी या चंद्रवंशी राजवंशों से संबंधो के दावे के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं उपलब्ध होता है।
5.जातियों की गतिशीलता की अवधारणा- पूर्व मद्य काल का आरंभिक चरण अस्थिरता और परिवर्तनों का काल था। इस काल में जातिप्रथा में भी परिवर्तन आया। इसके अतिरिक्त पूर्वकाल में जिन ब्राह्मणों को भू-दान दिए गए थे, उनमें से कई एक ने स्वतंत्र शासकों के तौर पर सत्ता ग्रहण कर ली। अतः वर्णव्यवस्था के अनुरूप उन्हें भी क्षत्रिय की स्थिति प्राप्त हुई। ब्रह्म-क्षत्र का शब्द इसी प्रसंग में प्रयोग में आया। अतः हम पाते हैं कि 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच कहीं ब्राह्मण, तो कहीं गैर आर्य जनजातियों के प्रधान शासक वर्ग के रूप में सामने आये। जातीय स्थिति में यह परिवर्तन, उत्कर्ष या अपकर्ष एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही समाज में स्थापित हो सकता था ताकि वर्ण व्यवस्था की मौलिक संरचना परिवर्तित न हो जाये। इसीलिए शासक वर्ग में प्रवेश करने वाली इन जातियों को भी क्षत्रिय माना गया।
6.मिश्रित मूल की अवधारणा- कई इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत शासक वर्ग में सभी प्रकार की जातियां शामिल थीं।इनमे से कुछ विदेशी मूल की थीं, कुछ प्राचीन क्षत्रिय और ब्राह्मणों से संबंधित थीं। और कुछ का मूल जनजातियों से जुड़ा था। अपने भिन्न मूल के बावजूद इनकी एक सामूहिक पहचान शासक –वर्ग के रूप में 9वीं सताब्दी के उत्तरार्ध्द तक बन चुकी थी।अतः इन्हें राजपूत (राजाओं के पुत्र) की संज्ञा दी गई और जातिप्रथा में क्षत्रियों के समतुल्य स्थान दिया गया। इस शासक वर्ग की कुछ अपनी परंपरायें थीं और कुछ इनके दायित्व थे। सगोत्रीय संबंध इनमें बड़े घनिष्ठ थे। भू-अनुदानों में भी सगोत्रीय संबंधों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इनमें योध्दा प्रवृत्ति काफी प्रबल थी। पूर्वकालीन शासकों की भांति इन्होने भी सांस्कृतिक क्रियाकलापों को प्रोत्साहन दिया। इस प्रकार एक नवीन व्यवस्था इनके अधीन विकसित हुई। अतः 10वीं से 12वीं शताब्दी का काल उत्तरी भाग के इतिहास में एक नए युग राजपूत-युग का द्योतक था।