Rajputo ke udya ka alochnatmakh vivran
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9वीं 10वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में एक नये शासक वर्ग का उदय हुआ, जो राजपूत कहलाये। मुख्यतः यह राजपूत राजवंश प्रतिहार साम्राज्य के अवशेषों से उभरे थे। 10वीं से 12वीं शताब्दी तक उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत के एक बढ़े क्षेत्र पर इनका राजनैतिक वर्चस्व बना रहा। उनके आधीन एक नई राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था का विकास हुआ और आर्थिक जीवन में भी नये लक्षण प्रकट हुए।
राजपूतों की उत्पत्ति की अनेक व्याख्यायें हैं। विभिन्न राजपूत शासकों के अभिलेखों, प्रशस्तियों और दरबारी कवियों की रचनाओं में दावा किया गया है कि राजपूत शासक प्राचीन कालीन क्षत्रियों के वंशज थे। इस क्रम में दो तथ्यों पर विचार आवश्यक है। संस्कृत में राजपुत्र (राजपूत) शब्द का उपयोग अर्थशास्त्र, हर्षचरित् आदि में मिलता है लेकिन यह व्यक्ति के संदर्भ में है न कि जाति के। सामूहिक रूप से इस शब्द का उपयोग 8वीं शताब्दी में सिंध के इतिहास संबंधी रचना चचनामा में मिलता है। इसमें दाहिर की सेना में घुड़सवारों के विशेष दल की चर्चा मिलती है। जिन्हें अब्नाऐ मुलूक (राजाओं के पुत्र) कहा गया है। राजपूतों की उतपत्ति की व्याख्याऐं अनेक हैं। इन्हें हम मुख्य 6 अवधारणाओं में बांट सकते हैं।
1.विदेशी मूल की अवधारणा-
कई इतिहासकार (टोड, क्रूक) राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारियों, विशेषकर शक् के वंशजों के रूप में देखते हैं। क्योंकि इनके संस्कार और कर्मकाण्ड एक-दूसरे से काफी मिलते हैं। गुप्त साम्राज्य के पतन के काल में कई मध्य एशियाई जनजातियां उत्तरी और मध्य भारत में आकर बसीं। पंजाब, राजस्थान, और गांगेय घाटी के क्षेत्रों में इन्होनें धीरे-धीरे अपनी सत्ता सुदृढ़ कर ली। समय बीतने के साथ यह भारतीय समाज और धर्म का अंग बन गये और नये शासक वर्ग के रूप में उनकी पहचान बनी। यही राजपूत कहलाये।
2.अग्निकुल का मिथक-
हर्षचरित में चर्चा मिलती है कि आबु पर्वत के निकट ऋषि वशिष्ठ ने एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। इसके कारणों के संबंध में दो विवरण मिलते हैं। एक तो यह कि विश्वामित्र ने वशिष्ठ की कामधेनु गाय को ले लिया था। उसकी वापसी के लिए वशिष्ठ ने यज्ञ का अनुष्ठान किया और इस यज्ञ अग्नि से प्रकट हुए योध्दा ने कामधेनु की वापसी में वशिष्ठ की मदद की। वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर उस योध्दा को परमार (प्रतिहार) की उपाधि दी। इसी योध्दा की संतान राजपूत कहलाये।
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